भारत एक कल्याणकारी राज्य के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न 1. नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने में राज्य की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर – नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को संविधान निर्माताओं ने एक विशिष्ट लक्ष्य को पूरा करने के लिए शामिल किया था। राजनीतिक प्रजातंत्र की स्थापना इसी क्रम में हुई, जब हर वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार दिया गया। लेकिन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और जनतांत्रिक समानता के बिना एक सफल लोककल्याणकारी तथा सामाजिक-आर्थिक समानता पर आधारित राज्य की स्थापना सम्भव नहीं है। लेकिन इसके बावजूद अशिक्षा को दूर करना, सभी को नौकरी देना और गरीबों और अमीर लोगों के बीच की खाई को दूर करना बहुत कठिन काम है।
मार्गदर्शन करना नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का काम है। इनका असली उद्देश्य यह है कि सरकार अपने भौतिक स्रोतों को ध्यान में रखकर यथासम्भव जल्दी सभी को आर्थिक और सामाजिक न्याय मिले। लेकिन सरकार ने अभी तक नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में आर्थिक और सामाजिक समानता का लक्ष्य हासिल नहीं किया है। लोक-कल्याणकारी राज्य का अर्थ है ऐसा राज्य जो समाज में कमजोर वर्गों की देखभाल करे और उनकी सेवाएं दे। ऐसे राज्य धन को समान रूप से बाँटने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं और गरीब, कमजोर और गरीब लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
प्रश्न 2. भारत में नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को किस सीमा तक लागू किया गया है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए ।
उत्तर- भारत एक कल्याणकारी देश है। इसका अर्थ है कि भारत की सरकार लोगों की भलाई के लिए बहुत कुछ करती है। सरकार भी कई कल्याणकारी काम करती है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और भोजन। नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का लक्ष्य भारत में एक कल्याणकारी राज्य बनाना है। निर्देशक सिद्धान्तों का उद्देश्य है कि लोगों का जीवन अर्थपूर्ण और सुविधाजनक हो। ये सरकार को याद दिलाते हैं कि जनकल्याण को अपनी नीतियों को लागू करते समय ध्यान में रखना चाहिए। भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाने का लक्ष्य समान काम के लिए समान वेतन देना है।
प्रश्न 3. निम्नलिखित सम्बन्धित नीति-निर्देशक सिद्धान्तों पर संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए-
(i) शिक्षा की सार्वभौमिकता
(ii) बाल मजदूरी का उन्मूलन
(iii) महिलाओं के स्तर में सुधार
उत्तर- (i) शिक्षा की सार्वभौमिकता- नीति-निर्देशक सिद्धान्त A के अनुसार, राज्य को संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अंदर 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। स्वतंत्रता के समय भारत की आबादी का सिर्फ 14% शिक्षित था। शिक्षा की आवश्यकता को समझते हुए हमारी सरकार ने सभी को शिक्षित करने पर बल दिया। सरकार के प्रयासों से आज भारत की शिक्षा दर 52% बढ़ गई है। लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा अभी भी अशिक्षित है। प्राथमिक शिक्षा को व्यापक बनाने पर सबसे अधिक बल दिया जाना चाहिए क्योंकि प्राथमिक शिक्षा छोड़ देने से 15 से 35 वर्ष की आयु के अशिक्षितों की संख्या बढ़ती जा रही है।
यदि प्राथमिक शिक्षा को छोड़ने वालों को रोका नहीं गया, तो इस शताब्दी के अंत तक 50 करोड़ से अधिक लोग अशिक्षित हो जाएंगे। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुसार, सरकार ने ‘नैशनल लिटरेसी’ और ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’ जैसे संगठनों को बनाया, जिससे आम लोगों को प्राथमिक शिक्षा मिली। वैसे, सरकार और कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने बचपन में प्राथमिक शिक्षा से वंचित वयस्कों को शिक्षित करने के लिए ‘रात्रि पाठशाला’ और ‘वयस्क शिक्षा केन्द्रों’ की स्थापना की है।
(ii) बाल मजदूरी का उन्मूलन – हम जानते हैं कि नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त कहता है कि बच्चों को स्वस्थ विकसित होने के लिए अवसर और सुविधाएं देना चाहिए। हम भी बच्चों के शोषण के विरुद्ध मौलिक अधिकारों को जानते हैं। 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों को खानों और उद्योगों में नियुक्त करने पर प्रतिबंध लगाया गया है, क्योंकि यह उनके स्वास्थ्य के लिए घातक होगा। इसके साथ ही भारत बच्चों के अधिकारों के लिए हमेशा से प्रतिबद्ध है। यह हमेशा बच्चों को दुर्व्यवहार, अवहेलना और दुरुपयोग से बचाने की कोशिश करता रहा है। यह बच्चों को एक खुशहाल, सुरक्षित और स्वस्थ बचपन देना चाहता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी बाल शोषण, बाल मजदूरी और अन्य कानूनों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ काम करने वाली संस्थाओं को धन देता है। इसने इस विषय पर बहुत सोचा है। यहाँ-यहाँ बच्चों को शिक्षा से वंचित करके बाल मजदूरी में डालने का प्रयास किया गया है, इसने सरकार पर दबाव डाला है कि हालात सुधरें। साथ में, मौलिक शिक्षा की व्यवस्था भी की गई है जो बच्चे इस चंगुल से बाहर आए हैं।
लेकिन इतनी मेहनत के बावजूद वह परिणाम नहीं निकला, जो होना चाहिए था। बालश्रम को समाप्त करने में माँ-बाप का ही दृष्टिकोण पर्याप्त नहीं था। वे बच्चों को काम करने पर मजबूर करते हैं, ताकि परिवार की आय बढ़े। गरीबी निश्चित रूप से इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके पास बच्चों का कल्याण करने का कोई इरादा नहीं है। इतना तो जरूर है कि बच्चों को शिक्षा और बचपन की खुशियों से वंचित नहीं रखना चाहिए।
(iii) महिलाओं के स्तर में सुधार – महिलाओं को इस सन्दर्भ में उनका स्थान किस सामाजिक प्रणाली में है? क्या अधिकार और सुविधाएं उसे मिलती हैं? इनका निर्णय कैसे लिया गया? क्या वह इन शक्तियों, अधिकारों या कुछ विशेष अधिकारों तक पहुँच पाता है? क्या वह पुरुष की तुलना कर सकती है? भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता है। पिता परिवार का मुखिया है और माँ गौण है। स्त्री की स्थिति ऐसे सामाजिक प्रणाली में कमजोर ही रहती है, चाहे वह पत्नी, माँ, बहन या बेटी हो। विवाह से संबंधित सभी मान्यताएँ, धन-सम्पत्ति उत्तराधिकार और रीति-रिवाज पुरुष के पक्ष में जाती हैं। पुरुषों को जन्म से ही इस समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। लड़कों को अधिक सम्मान दिया जाता है, जबकि लड़कियों को जन्म देना एक जिम्मेदारी या कर्तव्य माना जाता है। हमारे समाज में व्याप्त कुरीतियों और धार्मिक कुप्रथाओं, जैसे सती-प्रथा, पर्दा और दहेज, ने महिलाओं को दुःख देते रहे हैं।
भारतीय महिलाओं की दुर्दशा को देखते हुए, हमारे संविधान ने मौलिक अधिकारों में महिलाओं को बराबरी का हक देने और नारी शोषण पर प्रतिबंध लगाया है। नीति-निर्देशक सिद्धान्तों के अनुसार, महिलाओं को जीवनयापन के साधन जुटाने का अधिकार है और पुरुषों के समान काम पर समान पारिश्रमिक प्राप्त करने का अधिकार है। मजदूर महिलाओं को चिकित्सा और प्रसूति की सुविधा दी जाए।
साथ ही, मौलिक कर्तव्यों में कहा गया है कि भारत के हर नागरिक का कर्तव्य है कि नारी की हीनता को दूर कर उसकी मान प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाए। इस मामले में महिलाओं की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कानून बनाए गए और न्यायालयों ने भी निर्णय लिए हैं। उनके अधिकारों और संपत्ति में हिस्सा दिलाने के लिए भी कई उपाय किए गए हैं।
दहेज के लिए बहू को जलाना, पत्नी को प्रताड़ित करना और सती जैसे कुकर्मों से छुटकारा पाने के लिए कई कानून बनाए गए हैं। लड़कियों की भ्रूण हत्या, लड़की और लड़कों के जन्म में भेदभाव, बाल विवाह आदि पर प्रतिबंध लगाने से महिलाओं की स्थिति सुधर गई है। पंचायतों और नगर पालिकाओं में एक तिहाई महिलाएं अधिकारी हैं। संसद और राज्य विधान सभाओं में भी महिलाओं को सीटों का आरक्षण देने का प्रस्ताव है। लेकिन इन सभी कोशिशों के बावजूद, भारतीय समाज में महिलाओं की हालत सुधारने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
प्रश्न 5. राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त और मौलिक अधिकार में अन्तर के बावजूद इनमें गहरा सम्बन्ध है । व्याख्या कीजिए ।
उत्तर – इनमें मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में भिन्नता के बावजूद एक गहरा संबंध है। मौलिक अधिकार सामाजिक समानता और लोकतंत्र कायम करते हैं, जबकि नीति-निर्देशक सिद्धान्त आर्थिक, सामाजिक और लोकतंत्र कायम करने के साधन हैं। दोनों मिलकर काम करते हैं इसलिए। अगर सरकार लोक कल्याणकारी राज्य बनाना चाहती है, तो सरकार के सभी विभागों को इन निर्देशों का पालन करना चाहिए। सरकार इनकी अवहेलना नहीं कर सकती। सरकार जनता के प्रति हर काम की उत्तरदायी है। यद्यपि इन सिद्धान्तों की कोई कानूनी मंजूरी नहीं है, लेकिन जनता ही इनकी अंतिम मंजूरी देगी। लोगों ने अब समझ लिया है कि ये सिद्धान्त उनके हित में हैं। यही कारण है कि लोग सरकार पर इन मूल्यों को लागू करने का दबाव डालते हैं। चुनाव जनता पर दबाव डालते हैं।
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