NIOS Class 10 Psychology Chapter 17 प्रसन्नता और सुख

NIOS Class 10 Psychology Chapter 17 प्रसन्नता और सुख

NIOS Class 10 Psychology Chapter 17 प्रसन्नता और सुख – आज हम आपको एनआईओएस कक्षा 10 मनोविज्ञान पाठ 17 प्रसन्नता और सुख के प्रश्न-उत्तर (Happiness and Well-being Question Answer) के बारे में बताने जा रहे है । जो विद्यार्थी 10th कक्षा में पढ़ रहे है उनके लिए यह प्रश्न उत्तर बहुत उपयोगी है. यहाँ एनआईओएस कक्षा 10 मनोविज्ञान अध्याय 17 (प्रसन्नता और सुख) का सलूशन दिया गया है. जिसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप NIOSClass 10th Psychology Chapter 17 प्रसन्नता और सुख के प्रश्न उत्तरोंको ध्यान से पढिए ,यह आपकी परीक्षा के लिए फायदेमंद होंगे.

NIOS Class 10 Psychology Chapter 17 Solution – प्रसन्नता और सुख

प्रश्न 1. प्रसन्नता और सुख को पारिभाषित कीजिए । संतुलित जीवन-शैली से प्रसन्नता और सुख को प्राप्त करने के महत्त्व पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर – जीवन में आने वाली हर चीज से खुश होना और हर चीज से अच्छा होना खुशी का संकेत है। सशक्त सकारात्मक रुझान, आशा और उत्साह ही खुशी के संकेत हैं। अपने आसपास के लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाने में भी खुशी का भाव झलकता है। वास्तव में, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कल्याण की सामान्य भावना खुशी का कारण बनती है। लेकिन कल्याण की अपेक्षा खुशी तुलनात्मक रूप से अस्थायी है, और हम जो चाहते हैं या महत्त्व देते हैं, उससे खुशी निकलती है। पिकनिक पर जाना या दोस्तों से मिलना हम कुछ समय के लिए इस स्थिति से खुश हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि यह प्राप्ति और अनुकूलता पर निर्भर करता है। यानी की खुशी बाहरी है।

यह व्यक्ति नियंत्रण में उतना नहीं होता जितना परिणाम। स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीने के लिए स्वस्थ जीवनशैली का पालन करना आवश्यक है। भारतीय आयुर्वेद में स्वस्थ जीवन शैली के चार प्रमुख तत्त्वों की चर्चा की गई है, ये हैं-
(क) भोजन (आहार)
(ख) मनोरंजन (विहार)
(ग) दिनचर्या ( आचार)
(घ) चिन्तन (विचार)

प्रश्न 2. आत्म- यथार्थीकरण की विशेषताओं को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हर आदमी अपनी क्षमताओं को बढ़ा सकता है। व्यक्ति का आत्मबल यही है। रामायण में कहा गया है कि हनुमान के नेतृत्व में एक दल दक्षिणी छोर पर समुद्र तट पर सीता जी की खोज करने गया था. इसलिए सभी को चिंता हुई कि समुद्र से सौ योजन की दूरी पर कौन समुद्र पार करेगा? तब जामवन्त ने हनुमान को बताया कि उनमें सौ योजन दिव्य शक्ति है। हनुमानजी ने पहले विश्वास नहीं किया, लेकिन फिर उन्होंने श्रीराम का नाम लेकर श्रीलंका की त्रिकूट पर्वत चोटी की ओर चले गए। वे इसे पार कर गए। इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति में अपार आन्तरिक क्षमता है, लेकिन वह उसे नहीं जानता. और हर व्यक्ति अपनी क्षमता की चरमोत्कर्ष या अधिकतम सीमा पर नहीं पहुंच पाता।

यह आश्चर्यजनक है कि हनुमान जी की तरह बहुत से लोग जीवन भर अपनी कमियों और अक्षमताओं से तनावग्रस्त रहते हैं। यह भी एक कारण है कि लोग अपनी सकारात्मक रुचि और कारकों पर ध्यान नहीं दे पाते, जबकि वे बहुत कुछ कर सकते हैं। इसके लिए व्यक्ति को अपनी आंतरिक शक्ति को समझना चाहिए। वास्तव में, व्यक्ति की क्षमता उन क्षेत्रों में है जहां वह अच्छा कर सकता है। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि व्यक्ति की ये शक्तियां स्थायी नहीं होती; इसके बजाय, वे अलग-अलग क्षमताओं को विकसित करते हैं।

मानव-जीवन की यही कमी है कि वह दूसरों की स्थिति से संबंध बनाए, और दूसरों की स्थिति से संबंध बनाने की आवश्यकता पर ध्यान दे। व्यक्ति की मनोवृत्ति और मानसिक तैयारी इसके लिए आवश्यक हैं। जीवन में आगे बढ़ने और कई चुनौतियों का सामना करने के लिए मानसिक शक्ति की आवश्यकता होती है। शारीरिक सबलता मानसिक सबलता से अलग होती है। मानसिक रूप से मजबूत व्यक्ति आशावादी और अपनी क्षमताओं पर भरोसा करता है।

जिस व्यक्ति में सकारात्मक गुण हैं, जैसे दया, क्षमा, करुणा, परोपकार, साहस, श्रम आदि, वह अपने शक्ति केन्द्रों का सही उपयोग करने की कला जानता है। वह इस पहचान से ही अपनी शक्ति का सदुपयोग कर सकता है और अपना व्यक्तित्व निखार सकता है।

प्रश्न 3. सकारात्मक संवेगों का विकास करने के उपायों की चर्चा करो।
उत्तर – सकारात्मक संवेगों के विकास करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) तनाव कम से कम लेना चाहिए। तनाव मुक्त रहने के लिए व्यायाम तथा योग का सहारा लें।
(2) सकारात्मक विचारों को प्राथमिकता दें। नकारात्मक विचारों के प्रति दृष्टिकोण बदलें।
(3) प्रतिदिन की गतिविधियों तथा कार्यों में प्रसन्नता एवं संतोष को खोजने का प्रयास करें।
(4) यथार्थवादी लक्ष्यों को खोजें तथा उन्हें पाने का प्रयास करें।
(5) उन गतिविधियों एवं कार्यों को करने का प्रयास करें,
(6) दूसरों की सहायता के लिए भी समय निकालें।
(7) कृतज्ञ रहने का गुण विकसित करें। इससे आपकी पहचान और जागरूकता विस्तृत होगी ।
(8) आत्मिक स्वरूप को पोषित करने का प्रयास करें। जब हम किसी संगठन या संस्था में अपने विचार एवं विश्वास दूसरों के साथ बाँटते हैं, तो अच्छे मानवीय सम्बन्धों का विकास होता है, जो प्रसन्न रहने तथा तनाव को कम करने में सहायक होता है।

प्रसन्नता और सुख के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1. कल्याण क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए |
उत्तर – कल्याण के लिए वेदों में एक श्लोक है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग भवेत् ॥
अर्थात सब सुखी हों, निरोगी हों, सभी का सब विधि से कल्याण हो और किसी को भी किसी प्रकार का दुःख न हो। इसी प्रकार एक अन्य उक्ति है-

सत्यं शिवं सुन्दर।
सत्य उद्घाटक, कल्याणकारी और रूपदृष्टि से लालित्यपूर्ण रचना ही यानी काव्य वस्तु में उत्कृष्ट है। तुलसीदास ने कहा कि कीर्ति, काव्य-कला, विभूति (ऐश्वर्य) वही भली (श्रेयस्कर) होती है, जो गंगा के समान सबका कल्याण करती है। इस दृष्टिकोण से देखें तो कल्याण भावना एक भावना है जो दूसरों की भलाई में निहित है। कल्याण की सामान्य भावना से खुशी मिलती है, यानी कल्याण भावना खुशी लाती है। लेकिन हर खुशी का कल्याण नहीं होता, क्योंकि लोग अक्सर दूसरों को दुःख देकर खुश होते हैं। वस्तुतः कल्याण की भावना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाती है। यह हमें जीवन की विभिन्न जटिल समस्याओं और तनावों का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार करता है, जबकि खुशी एक स्थायी भावना नहीं है।

प्रसन्नता वह मानसिक अवस्था है, जब व्यक्ति को मनोवांछित पा जाने की दशा में उद्भूत होती है। जैसे हम पिकनिक पर जाएं- वहां का वातावरण, परिवेश, खूबसूरत नजारे, खुलकर मौसम का आनन्द लेना, चिन्तामुक्त होकर खेलना-कूदना, उछलना, दौड़ना, मौज-मस्ती सभी कुछ प्रसन्नतादायी है। कल्याण की अनुभूति प्राप्ति पर ही हो, यह आवश्यक नहीं है। स्रोत की दृष्टि से भी प्रसन्नता बाह्य कारक पर निर्भर करती है। प्रिय मिलता है तो प्रसन्नता, अगर नहीं मिलता तो विषाद, जबकि कल्याण की अनुभूति का स्रोत आन्तरिक होता है और यह व्यक्ति के नियंत्रण में होता है कठिनाइयो और परिस्थितियों को समझना । कल्याण की प्रमुख विशेषताएं कल्याण की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं

सकारात्मक सोच – दूसरों में सकारात्मक विशेषताएं देखना तथा आशावादी होना।
आत्मसम्मान – स्वयं में विश्वास रखना।
समानुभूतिशीलता – दुसरे व्यक्ति की
आत्मानुशासन – अपनी कथनी या करनी का ध्यान रखना।
नैतिक आचरण – ईमानदारी और व्यवहार में विश्वसनीयता।
यथार्थवादी दृष्टिकोण – जीवन की वास्तविकताओं का ज्ञान रखना तथा तद्नुसार उनके साथ व्यवहार करना ।
ये सभी विशेषताएं एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से सम्बंधित हैं। इनका सकारात्मक रूप से विचार करने के लिए हमें दूसरी अन्य विशेषताओं का सन्दर्भ लेना आवश्यक होता है।

कल्याण की विशेषता में व्यक्ति का आत्मविश्वास महत्वपूर्ण है। उस दृष्टिकोण से सोचने पर हमें निम्नलिखित बातें समझनी होती हैं-
• घटनाओं की वास्तविकता को समझना और स्वयं के जीवन की वास्तविकता को स्वीकार करना ।
अपनी करनी तथा कथनी में अनुशासन (तालमेल)।
• सही आचरण के साथ घटनाओं तथा व्यक्तियों आदि के सकारात्मक पहलुओं को देखना।
ये सभी चीजें कल्याण की भावना को बढ़ाती हैं। यह भी जानना आवश्यक है कि कल्याण की भावना अस्थायी खुशी से अधिक है।

प्रश्न 2. कल्याण में वृद्धि हम कैसे कर सकते हैं?
उत्तर- हम अक्सर कल्याण को कैसे बढ़ा सकते हैं? हम भी जानते हैं कि कल्याण की भावना आंतरिक है, इसलिए कुछ विचारों और व्यवहारों को बदलकर इस भावना को बढ़ा सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति दिखने में अच्छा नहीं लगता है, तो उसे इससे असंतोष होता है। यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति अपने आर्थिक और सामाजिक स्तर पर दूसरों से कम सौभाग्यशाली या हीन महसूस करने लगे। यही उनके दुःख और असंतोष का कारण है। ऊपर बताए गए परिस्थितियों को बदलने के लिए व्यक्ति को निश्चित रूप से कोशिश करनी होगी।

कभी-कभी परिस्थितियों को बदलने के लिए स्वीकार करना पड़ता है। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि कौन-सी परिस्थितियां बदली जा सकती हैं और कौन नहीं? जैसे, कोई व्यक्ति देखने में सुन्दर नहीं लगता है, तो उसे बदल नहीं सकता; वह काले से गोरा नहीं हो सकता, लेकिन अपनी साज-संवार से अपने स्वरूप को बदल सकता है। दूसरे की परिस्थितियों और मुश्किलों को समझना

दरअसल व्यक्तियों को अपनी सीमाएं समझनी होती हैं, ताकि परिवर्तन के प्रयास सही दिशा में किये जा सकें। यही यथार्थवादी दृष्टिकोण है। इसी से आत्मस्वीकृति को बल मिलता है। यह भी समझना जरूरी है कि हर व्यक्ति जीवन में सभी कुछ नहीं पा सकता। अतः अपनी स्थिति के प्रति सन्तोष के लिए जरूरी है कि स्वयं से कमतर जीवन स्थितियों व सुविधाओं वाले लोगों को देखकर अपनी परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया जाए। यही श्रेयस्कर होता है। व्यक्ति जीवन की अनेक समस्याएं, घटनाएं उचित अभिवृत्ति और समझदारी से सुलझा सकता है।

• व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करे, स्वयं की क्षमता को जाने- पहचाने।
• प्रसन्नता व खुशी के समय अपना निरीक्षण-परीक्षण करे। अपने और दूसरों के भी व्यवहार को ध्यानपूर्वक जांचे-परखें।
• अपनी पसन्द के व्यक्तियों की पहचान करे और उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं तथा व्यवहार की एक सूची बनाए।
• ऐसी किसी एक विशेषता को चुने जिसे व्यक्ति पसन्द करता है, और अपनाना चाहता है। इसे आत्म-सन्तोष व आत्मस्वीकृति में सरलता होती है और व्यक्ति अधिक प्रसन्न रहने की स्थिति में आ जाता है।

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