Class 12th History Chapter 15. संविधान का निर्माण
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Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | HISTORY |
Chapter | Chapter 15 |
Chapter Name | संविधान का निर्माण |
Category | Class 12 History Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
अथवा
जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश किए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ में व्यक्त उन आदर्शों की व्याख्या कीजिए जिनको भारत के संविधान का निर्माण करते समय ध्यान में रखा जाना था ?
उत्तर– संविधान संबंधी उद्देश्य प्रस्ताव पं० जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया। इसमें निम्नलिखित बातें कही गई थीं-
(1) भारत एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता-संपन्न गणतंत्र है।
(2) भारत राज्यों का एक संघ होगा, जिसमें ब्रिटेन के अधीन रहे भारतीय क्षेत्र, भारतीय राज्य तथा भारत-संघ में सम्मिलित होने की इच्छा रखने वाले अन्य राज्य सम्मिलित होंगे।
(3) भारत संघ के क्षेत्र में स्वायत्त इकाइयाँ होंगी।
(4) प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र भारत-संघ तथा इसके अंगों को सभी अधिकार तथा शक्तियाँ जनता से प्राप्त होंगी।
(5) सभी भारतीयों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय तथा समानता प्राप्त होगी। सभी को धर्म, विचार अभिव्यक्ति, उपासना, व्यवसाय आदि की मौलिक स्वतंत्रता होगी।
(6) अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों एवं कबीलों को पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
(7) गणतंत्र की क्षेत्रीय अखंडता और इसके प्रभुसत्ता संबंधी सभी अधिकारों को सभ्य राष्ट्रों के नियमों तथा न्याय के अनुसार बनाए रखा जाएगा।
(8) भारत राज्य विश्वशांति तथा मानव-कल्याण को बढ़ावा देने में अपना पूरा योगदान देगा।
उत्तर- ‘अल्पसंख्यक से अभिप्राय देश की कुल जनसंख्या में किसी वर्ग अथवा समुदाय के कम अनुपात से है। परंतु संविधान निर्माण प्रक्रिया के दौरान विभिन्न समुदाय इसे अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर रहे थे। (1) मद्रास के बी० पोकर बहादुर जैसे कुछ नेता मुसलमानों को अल्पसंख्यक कह रहे थे। उनका कहना था कि मुसलमानों की जरूरतों को गैर-मुसलमान अच्छी तरह नहीं समझ सकते। न ही अन्य समुदायों के लोग मुसलमानों का कोई सही प्रतिनिधि चुन सकते हैं।
(2) एन० जी० रंगा देश की दबी-कुचली जनता को अल्पसंख्यक बता रहे थे। उनका संकेत विशेष रूप से आदिवासियों की ओर था। जयपाल सिंह उनके विचारों का समर्थन कर रहे थे।
(3) डॉ० अंबेडकर तथा कुछ अन्य नेताओं के अनुसार अनुसूचित वर्ग अल्पसंख्यक थे।
(4) कुछ अन्य नेताओं के अनुसार हिंदू, मुसलमान, सिख आदि कोई भी समुदाय अल्पसंख्यक नहीं था। उनका मानना था कि वास्तविक अल्पसंख्यक देश की निर्धन जनता थी।
उत्तर– प्रांतों (राज्यों) के अधिकारों का सबसे शक्तिशाली समर्थन मद्रास के सदस्य के० संतनम ने किया।
(1) उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को बल्कि केंद्र को मजबूत बनाने के लिए भी शक्तियों का पुनर्वितरण आवश्यक है। “यह तर्क एक ज़िद-सी बन गया है कि सभी शक्तियाँ केंद्र को सौंप देने से वह मज़बूत हो जाएगा।” संतनम ने कहा कि यह गलतफ़हमी है। यदि केंद्र के पास
आवश्यकता से अधिक जिम्मेदारियाँ होंगी तो वह प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। उसके कुछ दायित्वों को राज्यों को सौंप देने से केंद्र अधिक मज़बूत हो सकता है।
(2) संतनम का मानना था कि शक्तियों का वर्तमान वितरण राज्य को पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर देगा क्योंकि भू-राजस्व को छोड़कर अधिकांश कर केंद्र सरकार के अधिकार में हैं। पैसे के बिना राज्यों में विकास परियोजनाएँ नहीं चल सकतीं। “मैं ऐसा संविधान नहीं चाहता जिसमें राज्य को केंद्र से यह कहना पड़े कि “मैं लोगों की शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकता। मैं उन्हें साफ़-सफ़ाई नहीं दे सकता। मुझे सड़कों में सुधार तथा उद्योगों की स्थापना के लिए भीख दे दीजिए। अच्छा तो यही होगा कि हम संघीय व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त कर दें और एकात्मक व्यवस्था (यूनिटरी सिस्टम) स्थापित करें।”
(3) संतनम ने कहा कि यदि पर्याप्त जाँच-पड़ताल किए बिना शक्तियों का प्रस्तावित वितरण लागू कर दिया गया तो हमारा भविष्य अंधकार में पड़ जाएगा। इस स्थिति में कुछ ही सालों में सभी प्रांत केंद्र के विरुद्ध” उठ खड़े होंगे।
उत्तर- तीस के दशक तक कांग्रेस ने यह मान लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। महात्मा गांधी का मानना था कि हमें एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदुस्तानी हिंदी और उर्दू के मेल से बनी भारतीय जनता के बहुत बड़े भाग की भाषा थी। यह एक साझी भाषा थी जो विविध संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई थी। समय के साथ-साथ बहुत तरह के स्रोतों से नए-नए शब्द और अर्थ इसमें समाते गए और विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोग इसे समझने लगे। महात्मा गांधी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा बन सकती है। उनका मानना था कि यह हिंदुओं और मुसलमानों के साथ-साथ उत्तर और दक्षिण के लोगों को भी एकजुट कर सकती है।
लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत से एक भाषा के रूप में हिंदुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। हिंदी और उर्दू एक-दूसरे से दूर जा रही थीं। परिणाम यह हुआ कि भाषा धार्मिक पहचान की राजनीति का भाग बन गई। परंतु हिंदुस्तानी के साझा चरित्र में महात्मा गांधी की आस्था कम नहीं हुई।
उत्तर- संविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर रही थी जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लिया था। लोकतंत्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श उन्नीसवीं शताब्दी से ही भारत में सामाजिक संघर्षों के साथ गहरे रूप से जुड़ चुके थे
(1) जब उन्नीसवीं शताब्दी में समाज-सुधारकों ने बाल-विवाह का विरोध किया तथा विधवा-विवाह का समर्थन किया तो वे सामाजिक न्याय का ही समर्थन कर रहे थे। |
(2) जब विवेकानंद ने हिंदू धर्म में सुधार के लिए अभियान चलाया तो वह धर्मों को और अधिक न्यायसंगत बनाने का ही प्रयास कर रहे थे। जब महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले ने दमित जातियों के उत्पीड़न का प्रश्न उठाया अथवा कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों ने मजदूरों एवं किसानों को एकजुट किया तो वे भी आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए ही संघर्ष कर रहे थे।
एक दमनकारी और अवैध सरकार के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन निश्चित रूप से लोकतंत्र एवं न्याय नागरिकों के अधिकारों और समानता का संघर्ष भी था।
संविधान का निर्माण–एक नए युग की शुरुआत
उत्तर- राष्ट्रीय आंदोलनों के दौरान अंबेडकर ने दमित समूहों (पिछड़े वर्गों) के लिए पृथक् निर्वाचिकाओं की माँग की थी। महात्मा गांधी ने इसका विरोध करते हुए यह कहा था कि ऐसा करने से ये समुदाय स्थायी रूप से शेष समाज से कट जाएँगे। संविधान सभा में इस प्रश्न पर काफ़ी वाद-विवाद हुआ।
1. अस्पृश्यों (अछूतों) की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव से हल नहीं किया जा सकता बल्कि इसके लिए जाति भेदभाव वाले सामाजिक नियमों, कानूनों और नैतिक मान्यताओं को समाप्त करना जरूरी है।
2. हरिजन संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक नहीं हैं। आबादी में उनको हिस्सा 20-25 प्रतिशत है। उन्हें समाज और राजनीति में उचित स्थान नहीं मिला है और शिक्षा और शासन में उनकी पहुँच नहीं है।
3. डा. अम्बेडकर ने संविधान का द्वारा अस्पृश्यता का उन्मूलन करने, तालाबों, कुओं और मंदिरों के दरवाजे सभी के लिए खोले जाने और निम्न जाति के लोगों को विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिये जाने का समर्थन किया।
4. मद्रास के नागप्पा ने दमित जाति के लोगों हेतु सरकारी नौकरियों और विधायिकाओं में आरक्षण का दावा किया।
5. मध्य प्रांत के दमित जातियों के एक प्रतिनिधि श्री के जे खाण्डेलकर ने दलित जातियों के लिए विशेष अधिकारों का दावा किया।
उत्तर- (1) प्रारम्भ में सन्तनम जैसे सदस्यों ने केन्द्र के साथ राज्यों को भी मजबूत करने की बात कही। अनेक शक्तियाँ केन्द्र को सौंप देने से वह निरंकुश हो जायेगा और ज्यादा उत्तरदायित्व रहने के कारण वह प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पायेगा।
2. ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमेन डॉ. बी. आर अम्बेडकर ने कहा कि वे एक शक्तिशाली और एकीकृत केन्द्र सरकार की स्थापना करना चाहते हैं।
3. 1946 और 1947 में देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक दंगे और हिंसा के दृश्य दिखाई दे रहे थे। इससे सामाजिक तनाव बढ़ रहा था और देश अनेक टुकड़ों में विभाजित हो रहा था। इसका संदर्भ देते हुए अनेक सदस्यों ने सुझाव दिया कि केन्द्र को अधिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाना चाहिए जिससे वह इन दंगों का दमन कर सके और साम्प्रदायिकता समाप्त कर सके।
4. संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने इस बात पर जोर दिया कि शक्तिशाली रहने पर ही केन्द्र सरकार सम्पूर्ण देश के हित की योजना बना पाएगी और आर्थिक संसाधनों को जुटा पाएगी।
5. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश के विभाजन के पूर्व इस बात से सहमत थी कि प्रांतों को पर्याप्त स्वायत्तता दी जायेगी परन्तु लीग द्वारा विभाजन कराए जाने के पश्चात् कांग्रेस का विचार बदल गया क्योंकि यदि केन्द्र सरकार अधिक शक्तिशाली रहती तो लीग ऐसा नहीं कर सकती थी।
6. औपनिवेशिक शासन व्यवस्था समाप्त होने के तुरंत बाद नेताओं ने यह महसूस किया कि केन्द्र ही अव्यवस्था पर अंकुश लगा सकता है और देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है।
अथवा
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए किस प्रकार का रास्ता निकाला ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- संविधान सभा में भाषा के मुद्दे पर कई महीनों तक वाद-विवाद हुआ और कई बार काफ़ी तनातनी भी पैदा हो गई।
(1) आरंभ में कांग्रेस तथा महात्मा गांधी हिंदुस्तानी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे। यह हिंदी तथा उर्दू के मेल से बनी एक समृद्ध भाषा थी जिसे भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग बोलता और समझता था। परंतु उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में ये भाषाएँ धर्मों के साथ जुड़ गईं। फिर भी महात्मा गांधी और कांग्रेस का इस भाषा के प्रति मोह कम नहीं हुआ।
(2) संविधान सभा के अनेक सदस्य हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलवाना चाहते थे। संयुक्त प्रांत के एक कांग्रेसी सदस्य आर०वी० धुलेकर ने संविधान सभा के एक प्रारंभिक सत्र में ही हिन्दी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने की माँग की थी। धुलेकर की इस माँग का कुछ अन्य सदस्यों द्वारा विरोध किया गया। उनका तर्क था कि क्योंकि सभा के सभी सदस्य हिन्दी नहीं समझते, इसलिए हिंदी संविधान निर्माण की भाषा नहीं हो सकती थी।
(3) इस प्रकार भाषा का मुद्दा तनाव का कारण बन गया और यह आगामी तीन वर्षों तक सदस्यों को उत्तेजित करता रहा। 12 सितम्बर, 1947 ई० को राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर धुलेकर के भाषण से एक बार फिर तूफान उत्पन्न हो गया। इस बीच संविधान सभा की भाषा समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जा चुकी थी।
(4) धुलेकर बीच-बचाव के ऐसे सुझावों को मानने वाले नहीं थे। वे चाहते थे कि हिंदी को राजभाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए। उन्होंने उन लोगों की जमकर आलोचना कि जो यह सोचते थे कि हिंदी को उन पर थोपा जा रहा है। धुलेकर ने ऐसे लोगों का मजाक उड़ाया जो महात्मा गांधी का नाम लेकर हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे।
(5) धुलेकर के बाद मद्रास की सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने सदन को बताया कि दक्षिण में हिंदी का विरोध बहुत अधिक है। विरोधियों का यह मानना है कि हिंदी के लिए हो रहा प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़े खोदने का प्रयास है। फिर भी दुर्गाबाई हिंदुस्तानी को जनता की भाषा स्वीकार कर चुकी थीं परंतु अब उस भाषा को बदला जा रहा था। उसमें से उर्दू तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को निकाला जा रहा था। दुर्गाबाई का मानना था कि हिंदुस्तानी के समावेशी और साझा स्वरूप को कमजोर करने वाले किसी भी कदम से विभिन्न भाषायी समूहों के बीच बेचैनी और भय उत्पन्न होगा।
संविधान का निर्माण के अति लघु उत्तरीय प्रश्न
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