NIOS Class 10 Psychology Chapter 16 सामाजिक और शैक्षिक समस्याएँ

NIOS Class 10th Psychology Chapter 16 सामाजिक और शैक्षिक समस्याएँ

NIOS Class 10 Psychology Chapter 16 प्रौढ़ता और बढ़ती आयु – जो विद्यार्थी NIOS 10 कक्षा में पढ़ रहे है ,वह NIOS कक्षा 10 मनोविज्ञान अध्याय 16 यहाँ से प्राप्त करें .एनआईओएस कक्षा 10 के छात्रों के लिए यहाँ पर Psychology विषय के अध्याय 16 का पूरा समाधान दिया गया है। जो भी मनोविज्ञान विषय में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है उन्हें यहाँ पर एनआईओएस कक्षा 10 मनोविज्ञान अध्याय 16. (सामाजिक और शैक्षिक समस्याएँ) का पूरा हल मिल जायेगा। जिससे की छात्रों को तैयारी करने में किसी भी मुश्किल का सामना न करना पड़े। इस NIOS Class 10 Psychology Solutions Chapter 16 Social and Educational Problems की मदद से विद्यार्थी अपनी परीक्षा की तैयारी अच्छे कर सकता है और परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकता है.

NIOS Class 10 Psychology Chapter16 Solution – सामाजिक और शैक्षिक समस्याएँ

प्रश्न 1. गरीबी की अवधारणा और स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- आर्थिक स्थिति से गरीबी का सीधा संबंध है। पुराने एकतंत्रीय शासन के दौरान समाज में दो ही वर्ग थे: उच्च वर्ग और निम्न वर्ग। इसे अमीर और गरीब, शोषक और शोषित कहते हैं। लेकिन फिर भी जबकि एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था है तीन आर्थिक वर्गों में समाज बंटा हुआ है; उच्च और निम्न वर्गों में मध्यम वर्ग और आ गया है। यह समाज का सबसे अमीर वर्ग है। गरीबी स्पष्ट रूप से किसी वर्ग की मोहताज नहीं है यह एक व्यक्तिगत और वस्तुपरक अवधारणा है।

गरीबी एक अमानवीय स्थिति है और गरीबी के कारण लोगों को आर्थिक अभाव और विपन्नता का सामना करना पड़ता है।
गरीबी, व्यक्तिपरक दृष्टि से, दूसरों से तुलना करके अपने आप को गरीब महसूस करना है; यह विचार सापेक्षिक है, और कोई भी व्यक्ति दूसरों से तुलना करके गरीब महसूस कर सकता है।

वर्तमान परिस्थितियों पर गहनता से विचार करने पर हम वास्तव में गरीब कौन है? अपेक्षित संसाधनों और क्षमता के प्रभाव के स्तर पर, जो व्यक्ति भोजन, आवास की पर्याप्त सुविधा, स्वास्थ्य के लिए अर्थ (धन) और बच्चों को शिक्षा देने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है, वह गरीब (लाचार) ही है. स्कूल की फीस देने के लिए पर्याप्त धन भी नहीं है। वह ऐसी कठिन परिस्थितियों में रहता है, जो उसकी मानवीय क्षमता को विकसित करने के अनुकूल नहीं होतीं।

वास्तव में गरीबी मानव जीवन के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है और यह मानव विकास पर कई प्रकार से प्रभाव डालती है। बालक की प्रारंभिक बाल्यावस्था को ही देखें। पोषण की कमी या अपर्याप्त भोजन की स्थिति बच्चे के मानसिक विकास पर बुरा असर डालता है। प्रेरक वातावरण की कमी और आदर्श नहीं होने पर प्रेरणा कम होती है। यही कारण है कि बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं, और अगर जाते हैं, तो गरीबी के दबाव में पढ़ाई छोड़नी पड़ती है।

यहां स्पष्ट है कि गरीबी सामाजिक ढांचे से भी जुड़ी है। हम अक्सर देखते हैं कि, भिन्न-भिन्न संवैधानिक और प्रशासनिक उपायों के बावजूद, अछूतों, गरीबों और अभावग्रस्त छोटे वर्गों के साथ सदियों से बरता जा रहा भेदभाव (स्वतंत्र भारत में भी) अभी भी जारी है। सामाजिक शोषण सीधे इस वर्ग से आता है। जाति विशेष के सदस्य होने के कारण एक वर्ग विकास के लिए आवश्यक अनुभवों से वंचित है। सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर ये वर्ग शोषण का शिकार हैं। समाज मनोवैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि सम्पन्न वर्ग के बच्चों की तुलना में उपेक्षित पृष्ठभूमि वाले बच्चे पिछड़ जाते हैं। उनका मानसिक विकास और कार्यक्षमता काफी नीचे रह जाता है। अब बोध, स्मृति और बुद्धि संबंधी अध्ययन ने दिखाया है कि सम्पन्न और अपेक्षित वर्ग के बच्चों के बीच कार्यक्षमता का अंतर उम्र के साथ-साथ बढ़ता जाता है।

जिन लोगों का जीवन गरीबी में बिताया जाता है, उनका जीवन नकारात्मक होता है। और ये व्यक्ति को और भी बदतर बनाते हैं। इस वर्ग में प्रेरणा की कमी और आत्मनिर्भरता की कमी के कारण दैनिक काम कारगर ढंग से पूरे नहीं हो पाते। यही कारण है कि गरीब समाज विकास से अलग-थलग रहता है। ये भी समाज की मुख्यधारा में सक्रिय नहीं हो सकते। हीनता बोध के कारण वे सिर्फ सामाजिक जीवन में विकसित नहीं होते। यह प्रश्न उठाना आसान और प्राकृतिक है कि लोगों को गरीबी क्यों होती है? यदि गहराई से विचार किया जाए तो व्यक्ति की संस्कृति या सामाजिक ढांचा इसका उत्तर दे सकता है। हम अक्सर देखते हैं कि लोग पीड़ितों को गरीबी के लिए दोष देते हैं और उनके व्यक्तित्व और स्वभाव को गरीबी का कारण बताते हैं। लेकिन यदि व्यापकता से देखा जाए, तो गरीबी के कई घटक हैं-

• भारतीय संदर्भ में कह सकते हैं-सामाजिक व आर्थिक ढांचा असमानता व सामाजिक शोषण को बढ़ावा देता है।
• गरीबी की दशा में जीवन कुछ व्यावहारिक पद्धतियों मूल्यों व समाधान शैलियों को सुदृढ़ करता है, जिससे रचनात्मक सामाजिक गतिशीलता के अवसर कम हो जाते हैं।
• लोगों में निजी तौर पर परस्पर विश्वास में कमी, शिक्षा का अभाव, धार्मिक अन्धविश्वासजन्य सामाजिक रूढ़ियों का दबाव और अज्ञान भी गरीबी के प्रभाव घटक हैं।
• इनसे मुक्ति ही गरीबी से मुक्ति का मार्ग है-भारतीय संविधान इन स्थितियों से मुक्त होने का वैधानिक मार्ग देता है, किंतु असल में इच्छाशक्ति की प्रबलता इसके लिए बहुत जरूरी है।

प्रश्न 2. सामाजिक समस्याएं क्या होती हैं? आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज की अवधारणा समूह को प्रतिबिंबित करता है। मानव समाज, पशु समाज और वनस्पति समाज जैसे समूह स्थितियां हैं और चार लोगों के बीच आपस में रहने में छोटी-बड़ी समस्याएं आम हैं. इसलिए शब्द सामाजिक समस्याएं समाज के संदर्भ में प्रचलित हुआ है।

भारत हमारा देश है। यहाँ हर व्यक्ति भारतीय समाज का एक शब्द बोलता है। भारत आजादी के बाद एक स्वतंत्र, सम्प्रभुतासम्पन्न देश के रूप में विश्व पटल पर एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. हालांकि, आजादी मिलने के बाद भी भारत ने बुनियादी ढांचे, अनाज, विज्ञान और शिक्षा जैसे कई क्षेत्रों में विकास करने की कोशिश की है।

हाल ही में हमारे देश में जीवन की संभावना बढ़ी है। बहुत से रोगों पर नियंत्रण पाया गया है, लेकिन आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में सार्थक लक्ष्य प्राप्ति और गरीबी की रेखा से ऊपर उठाने की सामूहिक कोशिश आज भी एक भीषण समस्या के रूप में सामने है। गरीबी पर अभी भी विजय नहीं मिली है। किसी भी समाज के लिए गरीबी एक भयानक अभिशाप है। जनसंख्या पर नियंत्रण पाने में पूरी तरह सफल न हो पाना भी इस गरीबी को दूर करने में एक महत्वपूर्ण बाधा है। यही कारण है कि संसाधनों की पर्याप्तता पर संदेह है।

आज भी भारतीय समुदाय को कई स्थानों पर कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हमारे औपनिवेशिक अतीत से कुछ समस्याएं जुड़ी हुई हैं। जनसंख्या, राजनीतिक स्थिति और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में कुछ बदलाव होते हैं। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक उपायों से इस समस्या को हल किया जा सकता है। समस्या का समाधान काफी हद तक संभव है अगर हम उसकी मूल वजहों पर विचार करते हैं और सकारात्मक कार्रवाई करते हैं।

सामाजिक और शैक्षिक समस्याएँ के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1. सामाजिक तनावों की व्याख्या करते हुए समूह व्यवहार को समृद्ध करने वाले कुछ समाज मनोवैज्ञानिक उपाय सुझाइए।
उत्तर- धर्म, जाति और भाषा के आधार पर भारतीय समाज बहुत विविध है। यहां अलग-अलग धर्म, भाषा और जाति के लोग रहते हैं। यहां पुराने समय से ही विदेशियों से सांस्कृतिक और राजनैतिक आदान-प्रदान होता रहा है। दूसरे देशों के साथ अच्छी तरह से व्यापार करने की लंबी परम्परा है। 1947 में, विभिन्न जातीय हितों को देखते हुए भारत स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में घोषित हुआ। इसने अपना संविधान बनाया, जो सभी धर्मों को समान रूप से स्वतंत्र रूप से अपनाने की स्वतंत्रता देता था। यह देश तभी से भारत को बनाने के लिए बहुत बड़े काम में शामिल है। आर्थिक और सामाजिक रूप से देश को आगे बढ़ाने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का क्रम लगातार जारी रहा, जिससे देश को एक स्वतंत्र और मजबूत सरकार बनाना एक कठिन चुनौती बन गया।

हमारा स्वतंत्र विचार निरंतर औपनिवेशिक अतीत से प्रभावित है। साथ ही, सामाजिक-आर्थिक विषमताएं और बढ़ती हुई आकांक्षाएं भी स्थिति को जटिल बनाती रही हैं। हम मानते हैं कि भारतीय समाज परंपरागत रूप से विभाजित था। समन्वय के रास्ते में सामाजिक दूरी बढ़ी है, जिसमें कई धर्म, संस्कृतियां, जाति समूह और कई भाषाएं शामिल हैं। अल्पसंख्यकों और निचली जातियों के बीच भेदभाव बरता गया। वे दोयम दर्जे के नागरिक थे। जब देश स्वतंत्र हुआ, कई निम्न स्तर अस्पृश्य (अछूत) थे। उसमें ऐसे भेदभावों पर कानूनन प्रतिबंध लगाया गया था। छुआछूत को दूर किया गया है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि कानूनी उपायों के बावजूद भी सामाजिक तनाव फिर से होते हैं। भारत में सामाजिक तनाव के कुछ उदाहरण हैं:

(i) इतिहास साक्षी है कि भारत की आजादी का मूल्य विभाजन था। नतीजतन, विभाजन के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शांतिपूर्ण संबंध बिगड़े और भयानक हिंसा हुई। दोनों वर्गों में पारस्परिक अविश्वास पैदा हुआ, जो टकराव, संघर्ष और आपसी नफरत को जन्म देता था।

(ii) भारतीय संस्कृति विविध है। जनता को संतुष्ट करना अलग बात है, और बहुमत की सरकार के फारमूले से सरकार को नियंत्रित करना आसान नहीं है। जब तक सरकार की दमनकारी नीति संविधान में रहेगी, किसी भी वर्ग में जागी असंतोष की लहर नियंत्रण में रहेगी। लेकिन जब दोनों सिद्धांतों को अपनाया जाएगा, तो विरोध विद्रोह में बदल जाएगा, और इसी प्रवृत्ति से अलगाववाद पैदा होता है। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, जैसे असम, नागालैण्ड और त्रिपुरा, में बार-बार अलग राजनीतिक सत्ताओं की मांग की जाती है। कश्मीर घाटी में तो हम सभी सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद के बुरे परिणामों से परिचित हैं। घाटी में लंबे समय से चल रहे अशांति और कश्मीरी पंडितों का पलायन इसका ही परिणाम है। इसी तरह आंध्र प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में पीपल्स वार ग्रुप और नक्सली गतिविधियों ने भी शासन और राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया है।

(iii) देश में जातिगत भेदभाव और पक्षपात भी बढ़ रहे हैं। बहुत से प्रजातांत्रिक समाज व्यवस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया को नकारात्मक रूप से देखते हैं। सामंजस्य भी उनकी रूढ़िवादी सोच से बाधित होता है। अक्सर हम यह समझते हैं कि ये भेदभाव और पक्षपात वास्तविक जीवन में नहीं होते, बल्कि झूठी सूचना, व्यक्तिगत राग-द्वेष और अन्य कारणों से होते हैं। लेकिन ये विरोधी (नकारात्मक) अवधारणाएं शक्तिशाली हैं और हमारे व्यवहार को प्रभावित करती हैं। इससे प्रभावित पक्ष एक निश्चित समूह पर हमला कर सकता है अगर द्वेष पैदा होता है। विरोध प्रकट कर सकता है।

उन्हें चोट लग सकती है। यह भी महत्वपूर्ण है कि पिछले कुछ वर्षों में जाति से जुड़े गुटों का संघर्ष राजनीति से अधिक सामाजिक जीवन में फैल गया है। इसलिए आज जाति-आधारित संगठन, गुट और गठजोड़ तेजी से फैल रहे हैं। जातिगत पहचान केवल राजनीतिक लाभ के लिए विकसित होती है।

अब यह समाज और धर्म से अधिक राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त होता जा रहा है, चाहे मामला जाति या धर्म (मजहब) का हो। इसलिए आज दलित वर्ग के नाम पर भी विभिन्न समूह बन रहे हैं। दलितों का सामाजिक स्तर बढ़ाने का नहीं, बल्कि दलितों के नाम पर अपनी राजनीतिक गोटी फिट करने का लक्ष्य रहा है। इस प्रकार, दलितों और पिछड़ों की राजनीति ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को ही बदल दिया है। वोट की राजनीति भी इसकी सीमा है। इसका सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य गायब हो गया है। इस प्रकार, आज भारतीय समाज कई प्रकार के सामाजिक तनावों का सामना कर रहा है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति इन सभी तनावों को प्रेरित करती है और उन्हें प्रेरित करती है। विशेषकर मध्यवर्ग की उत्पत्ति से। आर्थिक असमानता बढ़ी है और कलाकारों का गांवों से शहर में पलायन शुरू हुआ है। शिक्षा और मीडिया ने परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और इस प्रवृत्ति को काफी प्रोत्साहित किया है। इसके आधार पर, व्यक्ति, परिवार और समुदाय के स्तर पर लोगों की जिंदगी में तनाव स्पष्ट होने लगा है।

जब आप तनाव की प्रकृति को देखते हैं, तो स्पष्ट है कि अधिकांश संघर्ष और तनाव अस्मिता के केंद्र में होते हैं। आज हर वर्ग, गुट का अपनी अलग पहचान के दावों पर बल देना और उन्हें विभिन्न तरीकों से बढ़ावा देना एक बड़ी समस्या बन गया है। इसमें लोग अस्मिता का उपयोग करके अपने विशिष्ट लक्ष्यों को पूरा करने के लिए संगठन बना रहे हैं। राजनीतिक रोटी सेक रही है। विभिन्न समितियां, संघ और संगठन बन रहे हैं।
आज ऐसी नीतियां लागू हो रही हैं जिनसे विभिन्न समूहों के बीच मतभेद बढ़ते हैं और समूह के भीतर समानता कम होती है। यह हमारा ‘समूह’ है और दूसरा ‘समूह’ है, और लगभग सभी समाजों में ऐसा होता है। ऐसे मतभेद निश्चित रूप से खत्म नहीं हो सकते।

समाज मनोवैज्ञानिक उपायों के माध्यम से समूह व्यवहार को सुधारना: आज बहुलता का सार और महत्व समझना आवश्यक है। विशेष रूप से, समूह व्यवहार महत्वपूर्ण है। इसलिए समाज की रचनात्मक ओर देखना होगा। ऐसी रीति-नीति का निर्माण होना चाहिए, जिससे हर समाज अपनी अलग जीवन-शैली बना सकें। यह एक योगी की आवश्यकता है। इसके लिए, संकीर्णता से ऊपर उठने वाले समूहों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए और समन्वयात्मक दृष्टि के आधार पर एक-दूसरे के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग करना चाहिए. मानव जाति के व्यापक हितों के लिए ऐसे उच्च लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए। इसके लिए कुछ कदम सार्थक हो सकते हैं-

(क) विविध समूहों समुदायों के बीच स्वरूप संवाद की स्थिति बनाई जाए।
(ख) परस्पर विश्वास और स‌द्भाव पैदा हो।
(ग) विविध समूहों के लिए भागीदारी व समानता के ( अवसर सुनिश्चित किए जाएं।
(घ) आपसी देखभाल, सम्मान और सहयोग के अधिक अवसर उपलब्ध कराए जाएं। इन बातों का गंभीरता से पालन करने से सामाजिक तनावों से काफी हद तक मुक्ति पाई जा सकती है।

प्रश्न 2. भारतीय समाज के संदर्भ में स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव (लिंग भेद) को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- सृष्टि विकास और वृद्धि के लिए पुरुष और स्त्री दोनों का समान महत्व है। स्त्री को मां और मातृभूमि का दर्जा स्वर्ग से भी ऊपर बताया गया है, जिसे जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहा जाता है। संतान को जन्म देने वाली मां है। वह मां का किरदार निभाती है। इसलिए समाज में मां का महत्व सर्वोपरि है। यह भी कहा जाता है कि यत्र नार्यस्ते पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता, यानी जहां नारी की पूजा की जाती है, वहीं देवता रहते हैं। इस सबके बावजूद, भारतीय समाज की दृष्टि और मानसिकता को देखकर लगता है कि स्त्रियों को समाज में अभी भी कम दर्जा प्राप्त है। पुरुषों से कमतर, छोटा या हीन माना जाता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार, लड़कों की जन्म दर लड़कियों से अधिक है और स्त्रियों का अनुपात बदल रहा है, जो महिलाओं के खिलाफ जा रहा है। स्त्री-पुरुष दोनों समाज में बराबर योगदान देते हैं, लेकिन स्त्रियों का अधिक होता है। हमारे देश में देवी-देवताओं की पूजा का ही विधान है जैसे राम, कृष्ण, शिव और गणेश की पूजा की जाती है, वैसे ही दुर्गा, भवानी, काली, पार्वती और लक्ष्मी की पूजा भी की जाती है। शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, इतनी अच्छी सांस्कृतिक परंपरा और आदर्शों के बावजूद यह समानता और खासियत अधूरी है। महिलाओं को अधिकतर असमानता का सामना किया जाता है।

महिलाओं के प्रति यह अन्यायपूर्ण व्यवहार जन्म से ही शुरू होता है। लड़की की गर्भ में ही मृत्यु, कम उम्र में विवाह, घरेलू काम-काज, दहेज का दबाव और सामाजिक दृष्टि से घर से बाहर आने पर अनावश्यक रोक-टोक, आदि कारणों से शैशवावस्था से शोषण की अनवरत प्रक्रिया शुरू होती है। यही कारण है कि लड़की (महिला) जीवन भर नियंत्रण में रहने के लिए मजबूर है—वह बचपन में माता-पिता के नियंत्रण में रहता है, विवाहोपरान्त पति (पुरुष) के नियंत्रण में रहता है और बुढ़ापे में अपने पुत्र के आश्रित रहता है। भारतीय समाज में अधिकांश महिलाएं माता-पिता, पति और पुत्र पर निर्भर हैं।

महिलाओं के साथ भेदभाव के तरीके गांवों, शहरों और जनजातीय क्षेत्रों में अलग-अलग होते हैं। उन्हें कई तरह की जिम्मेदारियां दी जाती हैं। उनके काम का मूल्य भी पुरुषों की अपेक्षा कम ही माना जाता है। महिलाओं को समाज में कुछ रूपों में देखा जाता है। काम का बंटवारा, भोजन की गुणवत्ता या अन्य सामाजिक दायित्वों की तरह, हर जगह भेदभाव का स्तर स्पष्ट झलकता है। लड़कियों पर इतनी ज़िम्मेदारी और प्रतिबंध लगाए जाते हैं कि वे उन्हीं में फंस जाती हैं।

यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा और जीवन-स्तर की दृष्टि से देखें तो बहुत-से क्षेत्रों में महिलाओं ने शिक्षा प्राप्त करके स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने में अपूर्व साहस का परिचय देते हुए कई मोचों पर स्वयं को स्थापित किया है। राजनीति के क्षेत्र में इंदिरा गांधी, सुचेता कृपलानी, जयललिता, शीला दीक्षित, खेल में पी.टी. उषा, पर्वतारोहण में बछेन्द्री पाल, अंतरिक्ष में कल्पना चावला ऐसे कुछ नाम हैं जिनसे महिलाओं के योगदान को एक प्रतिष्ठा मिली है पर ये उदाहरण मात्र हैं।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top