NIOS Class 12 Environmental Science Chapter 6. प्राकृतिक पारितंत्र

NIOS Class 12 Environmental Science Chapter 6. प्राकृतिक पारितंत्र

NIOS Class 12 Environmental Science Chapter 6 प्राकृतिक पारितंत्र – आज हम आपको एनआईओएस कक्षा 12 पर्यावरण विज्ञान पाठ 6 प्राकृतिक पारितंत्र के प्रश्न-उत्तर (Natural Ecosystem Question Answer) के बारे में बताने जा रहे है । जो विद्यार्थी 12th कक्षा में पढ़ रहे है उनके लिए यह प्रश्न उत्तर बहुत उपयोगी है. यहाँ एनआईओएस कक्षा 12 पर्यावरण विज्ञान अध्याय 6 (प्राकृतिक पारितंत्र) का सलूशन दिया गया है. जिसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप NIOSClass 12th Environmental Science 6 प्राकृतिक पारितंत्र के प्रश्न उत्तरोंको ध्यान से पढिए ,यह आपकी परीक्षा के लिए फायदेमंद होंगे.

NIOS Class 12 Environmental Science Chapter 6 Solution – प्राकृतिक पारितंत्र

प्रश्न 1. प्राकृतिक पारितंत्र क्या है ?
उत्तर- प्राकृतिक पारितंत्र ऐसे पादपों और जंतुओं का समूह है, जो एक इकाई के रूप में कार्य करता है तथा अपनी पहचान बनाए रखने में सक्षम होता है।

प्रश्न 2. प्राकृतिक पारितंत्र के मुख्य वर्ग कौन-कौन से हैं?
उत्तर– प्राकृतिक पारितंत्र के दो मुख्य वर्ग हैं-स्थलीय पारितंत्र तथा जलीय पारितंत्र ।

प्रश्न 3. स्थलीय पारितंत्र के उदाहरण दीजिए ।
उत्तर – स्थलीय पारितंत्र हैं- वन, घास के मैदान, मरुस्थल तथा टुड्डा ।

प्रश्न 4. अलवण जलीय पारितंत्रों के उदाहरण दीजिए ।
उत्तर– अलवण जलीय पारितंत्रों के उदाहरण हैं- नदियाँ, झीलें पारितंत्र के उदाहरण हैं- और तालाब ।

प्रश्न 5. पतझड़ वृक्ष क्या होते हैं?
उत्तर– ये वृक्ष शरद ऋतु में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं तथा बसंत ऋतु में नई पत्तियाँ निकल आती हैं।

प्रश्न 6. मरुस्थल की दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर – मरुस्थल ऊष्ण और कम वर्षा वाले क्षेत्र होते हैं तथा वहाँ पानी का अभाव होता है।

प्रश्न 7. मरुस्थल के पौधे और जंतु ऊष्मा और शुष्क वातावरण से किस प्रकार अनुकूलन करते हैं?
उत्तर – मरुस्थलीय जंतु अपने आप को ऊष्मा और शुष्क वातावरण के साथ अनुकूलित करने में तेज दौड़ते हैं, निशाचर होते हैं, सांद्रित मूत्र का उत्सर्जन करके जल को संरक्षित रखते हैं जबकि मरुस्थलीय पौधे ज्यादातर छोटी झाड़ियाँ होती हैं। इनकी पत्तियाँ तो अनुपस्थित होती है या फिर उनका आकार बहुत छोटा होता है तथा तने गूदेदार होते हैं व जड़ तंत्र सुविकसित होता है।

प्रश्न 8. प्रेयरी तथा स्टेपीस कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर- प्रेयरी उत्तरी अमेरिका में पाए जाते हैं जबकि स्टेपीस यूरेशिया में ।

प्रश्न 9. प्लवक क्या होते हैं?
उत्तर – प्लवक छोटे सूक्ष्मदर्शीय तैरने वाले जीव हैं। जैसे- डायटम, प्रोटोजोआ तथा लारवा ।

प्रश्न 10. जलीय पारितंत्र क्या हैं?
उत्तर – जल निकायों में पाए जाने वाले पादप और जंतु- समुदाय को जलीय पारितंत्र कहते हैं। जलीय पारितंत्र दो प्रकार के होते हैं- अलवण जलीय तथा समुद्री पारितंत्र ।

प्रश्न 11. ऐसे दो पादपों और दो जंतुओं के नाम बताओ जो समुद्री पारितंत्र में पाए जाते हैं।
उत्तर – समुद्री पारितंत्र के पादप-डायटम, शैवाल, डायनोफ्लेज । समुद्री पारितंत्र के जंतु – सील, डॉलफिन व्हेल, पारेपॉयज तथा तली में रहने वाले जीव जैसे-स्पंज, कोरल, केकड़े आदि हैं।

प्रश्न 12. हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों के नाम लिखिए।
उत्तर – हिमालय के विभिन्न क्षेत्र हैं- पूर्वी हिमालय, केन्द्रीय हिमालय, पश्चिमी हिमालय तथा उत्तरी-पश्चिमी हिमालय ।

प्रश्न 13. भारत में मरुस्थल कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर – भारत में मरुस्थल राजस्थान, गुजरात, पंजाब तथा हरियाणा में पाए जाते हैं।

प्रश्न 14. पश्चिमी और पूर्वी घाटों के मध्य दो अन्तर लिखिए।
उत्तर-पूर्वी घाट भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर – दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में फैले हुए हैं। यहाँ वर्षा 60-160 मिमी. होती है। यहाँ की वनस्पतियों में सदाबहार वृक्षों से लेकर शुष्क सवाना तक पाए जाते हैं।
पश्चिमी घाट ताप्ती नदी से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए हैं। यहाँ वर्षा 100-500 से.मी. तक होती है। पुष्पीय पौधों की लगभग 3500 प्रजातियां पाई जाती हैं।

प्रश्न 15. घास के मैदान में पाए जाने वाले दो पादपों और दो जंतुओं के नाम बताइए ।
उत्तर– घास के मैदान में पाए जाने वाले पौधे नरकट, लैग्यूम तथा सूरजमुखी हैं । घास के मैदान में पाए जाने वाले जंतु हैं-चूहे, मूषक, हिरन, हाथी, कुत्ते, चीता आदि ।

प्रश्न 16. भारत में पाई जाने वाली तीन खाड़ियों के नाम बताइए |
उत्तर- भारत में पाई जाने वाली तीन खाड़ियाँ हैं- मन्नार की खाड़ी, कच्छ की खाड़ी और खम्भात की खाड़ी |

प्रश्न 17. दो संकटग्रस्त पारितंत्रों के नाम बताइए ।
उत्तर– दो संकटग्रस्त पारितंत्र ज्वारनदमुख, मैंग्रोव और द्वीप हैं।

प्रश्न 18. भारत में मैंग्रोव पारितंत्र कहाँ पाए जाते हैं?
उत्तर – भारत में मैंग्रोव पारितंत्र पूर्वी और पश्चिमी तट तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।

प्रश्न 19. ज्वारनदमुख, समुद्री या अलवण जल की अपेक्षा अधिक उत्पादनशील पारितंत्र क्यों होते हैं?
उत्तर – ज्वारनदमुख, समुद्री या अलवण जल की अपेक्षा अधिक उत्पादनशील और गतिशील पारितंत्र होते हैं, क्योंकि यहाँ नदी का प्रवाह, ज्वारभाटा, परास तथा अवसाद निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। अलवण जलीय और समुद्री पारितंत्र की अपेक्षा इनमें अधिक पोषक तत्त्व पाए जाते हैं इसीलिए ये सर्वाधिक जीवों को भी सहारा देते हैं।

प्रश्न 20. द्वीप समूह क्या है ?
उत्तर– द्वीप समूह वह भू-भाग है, जो चारों ओर से समुद्र से घिरा रहता है।

प्रश्न 21. इकोटोन की परिभाषा बताइए ।
उत्तर–इकोटोन, दो समुदायों के बीच का जोड़ होता है। उदाहरण के लिए ज्वारनदमुख, मैंग्रोव तथा घास के मैदान दूसरे शब्दों में इकोटोन दो या अधिक विविध पारितंत्रों के मध्य का कार्यक्षेत्र हैं।

प्रश्न 22. इकोटोन के चार उदाहरण दो ।
उत्तर– इकोटोन बास के मैदान,ज्वारनदमुख तथा नदी के तट ।

प्रश्न 23. कोर प्रजाति को परिभाषित कीजिए ।
उत्तर– कोर प्रजाति वे जीव हैं, जो प्राथमिक रूप से इस क्षेत्र में सर्वाधिक पाए जाते हैं।

प्रश्न 24. मैंग्रोव वनों में सांग बर्ड (गाने वाले पक्षी) की सबसे अधिक प्रजातियाँ क्यों पाई जाती हैं?
उत्तर- मैंग्रोव वनों में सांग बर्ड की सबसे अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं, क्योंकि यहाँ वन तथा मरुस्थल के बीच इकोटोन मिश्रित वास स्थान हैं।

प्रश्न 25. पर्यावरणविदों के लिए प्राकृतिक पारितंत्र को संरक्षित करने का क्या अर्थ है ?
उत्तर– किसी पर्यावरणविद् के लिए प्राकृतिक पारितंत्र को संरक्षित करने का अर्थ है उन जंतुओं और पादपों को उनके प्राकृतिक पर्यावास में संरक्षित करना, न कि किसी एक प्रजाति का संरक्षण करना।

प्राकृतिक पारितंत्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्तर

प्रश्न 2. निम्नलिखित के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए-
(a) एल्पाइन तथा आर्कटिक टुंड्रा ।
(b) सवाना तथा प्रेयरी
(c) उष्ण कटिबंधीय तथा समशीतोष्ण

उत्तर- (a) एल्पाइन तथा आर्कटिक टुंड्रा- टुंड्रा शब्द का अर्थ है ‘बंजर भूमि’। ये दुनिया के उन हिस्सों में मिलते हैं पर्यावरणीय परिस्थितियां बहुत चुनौतीपूर्ण हैं। टुंड्रा दो प्रकार के हैं: एल्पाइन टुंड्रा सभी पर्वतों की ऊँची चोटियों पर पाए जाते हैं, जहाँ वृक्ष नहीं उगते हैं; इसलिए, एल्पाइन टुंड्रा दिन और रात्रि के ताप को दर्शाते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में वृक्षों की सीमा के ऊपर ध्रुवीय हिम के नीचे आर्कटिक टुंड्रा लगातार फैला हुआ है। अंटार्कटिका टुंड्रा का अधिकांश दक्षिणी ध्रुव समुद्र से ढका हुआ है, इसलिए बहुत छोटा है. यह उत्तरी कनाडा, अलास्का, यूरोपीय रूस, साइबेरिया और आर्कटिक महासागर के द्वीप समूहों में फैला हुआ है।

आर्कटिक टुंड्रा के जन्तु में बारहसिंगा, कस्तूरी बैल, आर्कटिक खरगोश, कैरोबोस, लेमिंग और गिलहरी शामिल हैं. मुख्य वनस्पति कपास, घास, नरकट, बौनी हीथ, बिलोविर्च और लाइकेन हैं। इनमें से अधिकांश का जीवनकाल लंबा होता है, जैसे सेलिक्स आर्कटिका, जिसका जीवनकाल 150 से 300 वर्ष तक होता है। इनके शरीर पर मोटी उपत्वचा और एफीडर्मल रोम हैं, जो सर्दियों से बचाव करते हैं। टुंड्रा के स्तनधारियों का शरीर का आकार बहुत बड़ा होता है और कान और पूंछ का आकार छोटा होता है, जिससे सतह से ऊष्मा की हानि कम होती है। कीटों का जीवनचक्र छोटा होता है, वर्ष में एक बार ही समाप्त होता है, और उनके शरीर फर से ढके रहते हैं, जिससे उनका शरीर ऊष्मा नहीं खो देता।

(b) सवाना और प्रेयरी घास के मैदान हैं, जहाँ छोटे-छोटे पेड़ दूरी पर होते हैं। यह दूरी इस प्रकार व्यवस्थित की जाती है कि भूमि पर पर्याप्त प्रकाश पहुँचता है और घास या पौधों को कोई नुकसान नहीं होता। सवाना में कुछ पेड़ एक दूसरे से अलग होते हैं। कई सवाना में बहुत से पेड़ हैं, जो वनों की तरह दिखते हैं, लेकिन पेड़ कुछ दूर होते हैं। सवाना में ऋतुनुसार पानी की प्राप्ति होती है और कुछ मौसमों में अधिक वर्षा होती है। सवाना घास का अधिकांश क्षेत्र पूर्वी अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा भारत में है।
प्रेयरी क्षेत्रों में अधिकांश उष्ण कटिबंधीय घास है। प्रेयरी क्षेत्र में मध्यम वर्षा होती है और घास, छोटे पौधे और झाड़ी हैं। उत्तरी अमेरिका में प्रेमी घास के मैदान हैं, जैसे अर्जेन्टीना की पम्पास, ब्राजील और उरूग्वे के स्टेपीस और यूरेशिया के स्टेपीस।

(c) उष्ण कटिबंधीय तथा समशीतोष्ण वन – उष्ण कटिबंधीय वनों को दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। जैसे उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन और उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन । भारत की प्राकृतिक वनस्पति में वर्षा वन महत्वपूर्ण हैं। इन वनों में उष्ण कटिबंधीय आर्द्र वन और उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन शामिल हैं। हाँ पर इस तरह की वनस्पति बहुतायत से होती है और पूरे वर्ष धूप निकलती है। यहाँ रोजवुड, आबनूस और महोगनी सबसे बड़े वृक्ष हैं।
उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन आर्द्र या शुष्क होते हैं। ये वृक्ष गर्मियों के मौसम में छह से आठ हफ्तों में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। ये वन मानसूनी वन कहलाते हैं क्योंकि उनकी शानदार आकृति है। लगभग पूरे भारत में ये वन प्राकृतिक छाया देते हैं। ये वन केरल राज्य में हैं। यहाँ चंदन, सागौन और साल के वृक्ष सबसे बड़े हैं।

समशीतोष्ण वन – ये वन भी दो प्रकार के होते हैं- समशीतोष्ण वृहत पर्ण वन तथा समशीतोष्ण शंकु पर्ण या शंकुधारी वन । समशीतोष्ण वृहत पर्ण वन पश्चिमी हिमालय में 1500-2400 मी. की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इन वनों में मुख्यतः बलूत की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ये प्रजातियाँ सदाबहार होती हैं। इनमें ग्रीष्म ऋतु मे ज्यादा पतझड़ होता है, परन्तु कभी भी पूर्णतया पतझड़ नहीं होता। ये वृक्ष काफी सघन होते हैं, शाकीय परत कम विकसित होती है तथा घास का अभाव होता है। इन वृक्षों की ऊँचाई लगभग
25-30 मी. तक हो सकती है। यहाँ के ऑक वन अधिकतर अधिपादपों से परिपूर्ण होते हैं।

समशीतोष्ण शंकुपर्ण या शंकुधारी वन-ये हिमालय में 1700 से 3000 मीटर की ऊँचाई पर हैं। यहाँ धन लाने वाले वृक्ष हैं, जैसे चीड़, देवदार, साइप्रस, स्प्रूस और सिल्वर फर। शंकुधारी वृक्ष 30 से 35 मीटर ऊँचे होते हैं और इनकी पत्तियाँ लंबी और सुईनुमा होती हैं। इन पर आम छत्र हैं। इन वृक्षों के छत्रक हर समय हरे होते हैं। शंकुधारी वनों की कई प्रजातियाँ शंक्वाकार हैं।

प्रश्न 3. जैव विविधता से आप क्या समझते हैं? इसका क्या महत्त्व है? समझाइए |
उत्तर- जैव-विविधता विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों, प्राणियों और जीवों का एक समूह है। इसका अस्तित्व जीव जगत की परस्पर प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर निर्भर है। यह एक अद्भुत ग्रह है जिस पर जलवायु तथा जीवन है, क्योंकि पृथ्वी की अपनी अनूठी विशेषताएं हैं। पारितंत्र का आधार जैव विविधता है। जैव विविधता पर्यावरण है। स्थलीय पारितंत्र में आर्कटिक और अंटार्कटिका क्षेत्रों में कम जैव विविधता है, जबकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में अधिक है। पर्यावरण में अचानक हुए परिवर्तनों से कई प्रजातियाँ पैदा हुईं और कई विलुप्त हो गईं। जैव विविधता में प्राकृतिक पारितंत्र की प्राकृतिक उपलब्धियों से हवा, पानी और प्रदूषण भी प्रभावित होते हैं।

बहुत सी वनस्पतियों और जीव-जन्तु प्रजातियों को वातावरण में जलवायु परिवर्तन तथा अन्य प्राकृतिक घटनाएं प्रभावित करती हैं; कुछ प्रजातियों की उत्पत्ति या विलुप्ति होती है। वातावरण भी मनुष्य का स्वास्थ्य प्रभावित करता है। पृथ्वी की पारिस्थितिकी को संतुलित रखने में सभी जीवों की अलग-अलग भूमिका होती है। कई पारितंत्रों को जैव विविधता मिलती है।

प्रश्न 4. मरुस्थलीय पादपों और जंतुओं के दो अनुकूलन बताइए |
उत्तर- वातावरण मरुस्थलीय जीवों और पादपों को बदलता है। छोटी घास सभी मरुस्थलों में पाई जाती है। उदाहरण के लिए, सैजोरा कैक्टस केवल उत्तरी अमेरिका में पाया जाता है, जबकि स्वीनीफैक्स केवल आस्ट्रेलियाई पहाड़ियों में पाया जाता है। मरुस्थलीय पादपों में नागफनी, बबूल, यूफोर्बिया तथा कांटेदार नागफनी आम हैं, और मरुस्थलीय जन्तु में छछूंदर, लोमड़ी, चूहा, खरगोश, ऊँट और बकरियाँ हैं । बिल बनाने वाले रोडेक्ट, कीट और सरीसृप भी मरुस्थलीय जंतु हैं।

पादप अनुकूलन-मरुस्थलीय पादप दोनों उष्णकटिबंधीय और शुष्क क्षेत्रों में उगते हैं। जीवित रहने के लिए ये निम्नलिखित उपायों से जल बचाते हैं। अधिकांश झाड़ियाँ हैं। इनमें बहुत छोटी या कोई पत्तियां नहीं होती। इनकी गूदेदार पत्तियाँ और तने जल को संचित करते हैं। जिन पौधों में क्लोरोफिल होता है, वे तने प्रकाश संश्लेषण क्रिया में भाग लेते हैं। जड़तंत्र व्यापक रूप से विकसित है और बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। कुछ पौधे अविश्वसनीय अनुकूलन करते हैं। मुल्गा पेड़ों की छोटी-छोटी पत्तियों का आकार एक कीप बनाता है, जिससे वर्षा का पानी जड़ों और टहनियों से होकर भूमि तक पहुँचता है।

जंतु अनुकूलन – मानव मरुस्थलीय वातावरण में काम करने के लिए और शारीरिक रूप से अनुकूल होते हैं। ये जानवर बहुत तेज चलते हैं। ये जंतु दिन में सूरज की गर्मी से दूर रहते हैं क्योंकि वे निशाचर हैं। सांद्रित मूत्र जल को बचाते हैं। लम्बी टांगों के कारण जंतु और पक्षी गर्म जगह पर रहते हैं। छिपकलियाँ बिना पानी के कई दिनों तक जीवित रह सकती हैं और कीटों से जल ग्रहण करती हैं। शाकाहारी जीव भी बीजों और पत्तियों से जल लेते हैं। इनके स्वेद पसीने की ग्रंथियाँ नहीं होतीं, इसलिए पानी बाहर नहीं निकलता। ऊँटों को मरुस्थलीय जहाज कहा जाता है क्योंकि वे बिना पानी के दिनों तक चल सकते हैं और लंबे समय तक चलते रहते हैं। यह पानी को अपनी कूबड़ जैसी संरचना में एकत्रित करता है।

प्रश्न 5. भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के वनों का संक्षेप में वर्णन करो।
उत्तर- भारत में पाए जाने वाले वनों को उनकी स्थिति वातावरण मौसम की दशाओं के कारण विभिन्न प्रकार से वर्गीकृ किया जा सकता है-
(i) उष्णकटिबंधीय वर्षा वन- ये वन मुख्यतः जहाँ वर्षा बहुत होती है और वर्ष भर धूप निकलती है। इस श्रेणी के वनों में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन, उष्णकटिबंधीय तथा अर्ध उष्णकटिबंधीय वन शामिल हैं। यहाँ 200 सेमी से भी अधिक वर्षा होती है, इसलिए इन वनों में सबसे अच्छी वृद्धि होती है। यहाँ बहुत कम समय तक शुष्क मौसम रहता है। उत्तर पूर्वी भारत, पश्चिमी घाट के वर्षा वाले ढालों, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के मैदानों में उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन पाए जाते हैं। तेजी से वृद्धि करने वाले इन वनों के पेड़ 60 मीटर की ऊँचाई तक बढ़ सकते हैं। इन वनों में बहुत सी प्रजातियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक का व्यापारिक महत्व है। रोजवुड, आबनूस और महोगनी इन वनों के प्रमुख वृक्ष हैं।

(ii) उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन- 6 से 8 हफ्तों में उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन गार्मियों के मौसम में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। ये जंगल शानदार हैं। शानदार आकृति और सुंदरता के कारण इन्हें मानसूनी वन भी कहा जाता है, क्योंकि वे भारत भर में प्राकृतिक छाया देते हैं। ये वन वहाँ पाए जाते हैं जहाँ 75 सेमी से 200 सेमी की वार्षिक वर्षा होती है। ये वन भारत में केरल राज्य, पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और प्रायद्वीप पठारों के उत्तर-पूर्वी भाग और हिमालय की घाटी में भी हैं। क्योंकि ये वने बहुत सुंदर होते हैं और बहुत रखरखाव की जरूरत होती है, इनकी आग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम है। उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वनों को दो भागों में बांटा जा सकता है: आर्द्र पर्णपाती और शुष्क पर्णपाती। पश्चिमी घाट के पूर्वी ढाल पर आर्द्र पर्णपाती वन आम हैं, जबकि शुष्क पर्णपाती वन छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्र, पूर्वी मध्य प्रदेश, दक्षिणी बिहार तथा पश्चिमी उड़ीसा, उत्तरी शिवालिक क्षेत्र में भी पाए जाते हैं। चन्दन, सागौन और साल इन वनों के प्रमुख पेड़ हैं।

(iii) समशीतोष्ण वृहतपर्ण वन- इन वनों की बलूत प्रजातियाँ हिमालयी क्षेत्र में आम हैं। पश्चिमी हिमालय में ये वन 1500 से 2400 मीटर की ऊँचाई पर हैं। ग्रीष्म ऋतु में इन प्रजातियों में अधिक पतझड़ होता है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। इन वृक्षों की ऊँचाई लगभग २५ से ३० मीटर होती है। वृक्ष वितान सघन होता है, लेकिन शाकीय परत कम विकसित होती है और घास कम है। इन वनों में ऑक वन अधिकारी हैं।

(iv) समशीतोष्ण शंकुपर्ण या शंकुधारी वन- शंकुधारी वन हिमालय में 1700-3000 मी. की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इन वनों के वृक्ष 30-35 मी. ऊँचे होते हैं और इनका लंबी एवं सुई नुमा पत्तियों वाली सदाबहार वितान छत्रक पाया जाता है। इन वृक्षों के छत्रक हमेशा हरे रहते हैं। इन वनों में आर्थिक महत्त्व के उपयोगी जिम्नोस्पर्मी वृक्ष पाए जाते हैं, जैसे-चीड़, देवदार, साइप्रस, स्प्रूस और सिल्वर फर आदि ।

(v) अल्पाइन और टुंड्रा वन – एल्पाइन वनस्पति 3600 मीटर से ऊपर होती है। इसमें पाए जाने वाले वृक्षों की वृद्धि उसकी ऊँचाई के साथ-साथ रुक जाती है। इस श्रेणी में अधिकतर वृक्ष चीड़, सिल्वर फर, जूनी और विर्च हैं। अधिकांश इन क्षेत्रों के सबसे ऊँचे स्थानों पर एल्पाइन घास के मैदान पाए जाते हैं। लाइकेन और मॉस इनके ऊँचे ढाल पर पाए जाते हैं। ज्वारीय वन भारत के तटों और नदियों के पास होते हैं। ये अलवण जल और खारे पानी से ढके हुए हैं और मैंग्रोव वृक्षों से ढके हुए हैं। सुंदर मैंग्रोव वृक्ष है। सुन्दरवन गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा के आसपास के वनों का नाम है। पूर्वी भारत में हिमालयी वनस्पति हैं। यहाँ मेपल, चिलगोजा, ऑक और अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। दक्षिण भारत में भी वर्षावन महत्वपूर्ण हैं। केरल में नारियल वृक्ष लैगून का वितान बनाते हैं। नम कर्नाटक के पठारों पर शीशम, चंदन और सागौन भी मिलते हैं।

प्रश्न 6. हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों के बारे में संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर– हिमालय बहुत बड़ा हिस्सा है। यह लगभग 2500 किमी पूर्व-दक्षिण पूर्व से पश्चिमी उत्तर पश्चिम तक फैला हुआ है। यह पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और चीन तक फैला हुआ है। हिमालय भारत में कंचनजंगा पर्वत से पश्चिम में सिंधु घाटी तक और वहाँ से पूर्व में यारलंग सांगपो ब्रह्मपुत्र तक फैला हुआ है। हिमालय का विभाजन भौगोलिक रूप से निम्न प्रकार से किया गया है-

(i) असम हिमालय या पूर्वी हिमालय – यहाँ सबसे विविध पारितंत्र हैं, जिसमें वन, घास के मैदान, अनूप, दलदल, झीलें, धाराएँ और नदियाँ शामिल हैं। पूर्वी हिमालय को असम हिमालय या पादपों की उत्पत्ति के केंद्र के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि इसमें लगभग 8000 प्रजातियाँ पुष्पीय पौधों और कई स्थानिक पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ कई फल, सब्जी और अनाज की फसलें उगाई जाती हैं। जैसे आर्किड, एस्टर बबूल, अलबिजिया, डेलबर्जिया और फलीदार पौधों की कई फसलें ।

(ii) केन्द्रीय हिमालय या नेपाल हिमालय।

(iii) पश्चिमी हिमालय – इसमें लद्दाख का शीत मरुस्थल आता है, जहाँ पादपों और जंतुओं की क्षति और अकाल प्रतिरोधी प्रजातियों का स्थान है
(iv) उत्तर पश्चिम हिमालय या पंजाब हिमालय |

प्रश्न 7. भारत में पाए जाने वाले घास के मैदान और मरुस्थल के बारे में संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर– घास के मैदान भारत के कुछ शुष्क क्षेत्रों में, जैसे एल्पाइन हिमालय के पश्चिम में, गाँवों में चरागाह हैं। प्रमुख पादप समुदाय बहुवर्षीय घास है। कुछ स्थानों में घास के मैदान फलीदार पौधों, सूरजमुखी वर्ग के सदस्य पौधों और नरकट जैसे अन्य शाकीय पौधों का भी सहारा देते हैं। घास में रहने वाले शाकाहारी जीवों में सूक्ष्म कीटों से लेकर बड़े स्तनधारियों तक शामिल हैं, जैसे चूहे, मूषक, रोडेक्ट, हिरन, हाथी, कुत्ते भैंसे, बाघ, शेर और नेवले। उत्तरी पूर्वी भारत में एक सींग वाला गैंडा, उदाहरण के लिए, आज कुछ जीवों का जीवन खतरे में है। रंग-बिरंगे पक्षी घास के मैदानों को खुश करते हैं।

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में भारतीय मरुस्थल है। भारतीय मरुस्थल चार प्रकार के होते हैं: पहाड़ी, समतल पहाड़ी, दलदली और रेत के टीलों वाले मैदान। गुजरात में भुज का कच्छ का रण या कच्छ थार मरुस्थल में अलग-अलग जलवायु होती है, जो इसे अलग राज्य बनाती है। यह विशाल समतल मैदान है जिसमें बहुत अधिक लवण है। रेत के टीलों का क्षेत्र लगभग 1,00,000 किमी2 है, जो असाधारण है। पाकिस्तान भी इसका शिकार है। रेत के टीले चलते रहते हैं, इसलिए मरुस्थल में वनस्पति नहीं होती, और ऊष्मा और प्रकाश बहुत तीव्र होते हैं। मरुस्थल केवल कंटीले वन और शुष्क खुले घास के क्षेत्र हैं। इंदिरा गाँधी नहर, जो पंजाब और हरियाणा से गुजरती है, कुछ वनस्पति प्रदान करती है। बाजरा, ज्वार, गेहूँ, जौ, मक्का और अन्य मरुस्थलीय फसलें हैं। यहाँ कुछ औषधीय पौधे भी हैं, जैसे गूगल, मेंहदी, आक, इसबगोल आदि। छछूंदर, लोमड़ी, चूहा, खरगोश, ऊँट और बकरियाँ मरुस्थलीय जंतु हैं। कच्छ की खाड़ी में कोरल, सीप, समुद्री कछुए और बहुत से प्रवासी पक्षी आते हैं, जैसे किंगफिशर, सारस, इविस और बगुले आदि ।

प्रश्न 8. वनोन्मूलन पारिस्थितिक असंतुलन के लिए किस प्रकार उत्तरदायी है? वर्णन करो।
उत्तर- मनुष्यों द्वारा प्राकृतिक पारितंत्र का दुरुपयोग, जैव विविधता और जंगली जीवों का जीवन खतरे में है और विलुप्त हो रहा है। मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या, उनकी आवश्यकताएं और उनके लालच के कारण पारितंत्र समाप्त हो रहा है। किसी भी प्राकृतिक पारिस्थितिक व्यवस्था की कमी पारिस्थितिक असन्तुलन को जन्म देती है। हम कह सकते हैं कि मनुष्य भी एक संकट में है। वनोन्मूलन प्रकृति और पर्यावरण पर कई प्रकार का असर डालता है-

पर्यावरणीय – वनोन्मूलन ने सबसे अधिक ऊष्मीय भूमण्डलीय तापन प्रभाव छोड़ा है। इससे CO2 की मात्रा पर्यावरण में बढ़ जाता है। जब पर्यावरण में CO2 की सांद्रता बढ़ जाती है जो सूर्य की किरणों के साथ मिलकर एक परत बनाती है और ग्रीन हाऊस प्रभाव उत्पन्न करती है। वनोन्मूलन से वृक्षों द्वारा उत्पादित कार्बनिक भोजन पर भी प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों के अनुसार उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में वनोन्मूलन से लगभग 1.5 करोड़ टन कार्बन उत्पादित होती है।

जलचक्र – वनोन्मूलन जल चक्र पर प्रभाव डालता है। वृक्ष अपनी जड़ों से भूमि का जल सोखते हैं और इसे वाष्प के रूप में वातावरण में छोड़ते हैं। जब पेड़ काट दिए जाएंगे, तो वाष्पों की मात्रा कम हो जाएगी, जिससे वातावरण शुष्क हो जाएगा। मृदा अपरदन को बढ़ावा देने से भूस्खलन और बाढ़ होते हैं।

मृदा- वनों में मृदा अपरदन बहुत कम होता है। वनोन्मूलन मृदा अपरदन को बढ़ाता है, क्योंकि पेड़ मृदा को अपनी जड़ों से बाँधे रखते हैं। यदि वृक्षों को स्लोप से हटा दिया जाए तो भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।

जैव-विविधता- जैव-विविधता कम हो जाती है और कई प्रजातियाँ मर चुकी हैं। वन जंगली प्रजाति को घर बनाते हैं और उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में 80% जैव विविधता है। दैनिक रूप से, वर्षा वनों के उन्मूलन से 137 वृक्षों, कीटों और जीवों की मृत्यु हो रही है। इस प्रकार हर साल कम से कम 50,000 प्रजातियाँ मर रही हैं। कुछ प्रजातियां खतरनाक हैं।
आर्थिक-वनोन्मूलन से व्यक्ति का जीवन भी प्रभावित होता है। वृक्षों की लकड़ी का उपयोग पेपर, फर्नीचर और घर बनाने में किया जाता है। लकड़ी भी कुछ लोगों का ईंधन है। बढ़ती जनसंख्या के कारण रहने के लिए स्थान की भी आवश्यकता होती है। शहरों को विकसित करने के लिए सड़कें बनाई जाती हैं।

प्रश्न 9. इकोटोन क्या होता है? कोर प्रजातियों के लिए उसके महत्त्व का वर्णन कीजिए ।
उत्तर- इकोटोन एक या अधिक अलग-अलग पारितंत्रों (जैसे मैंग्रोव वन) के बीच है। उदाहरण के लिए, इकोटोन वन और घास का बीच का क्षेत्र इकोटोन स्थलीय पारितंत्र में दो अलग पारितंत्रों को एकत्र करता है। इकोटोन दोनों पारितंत्रों के जन्तु और पादपीय प्रजातियों को जोड़ता है। इकोटोन एक जगह है जहाँ दो अलग-अलग समुदायों में परिवर्तन स्पष्ट है। ये समुद्री और स्थालीय पारितंत्र दोनों के मध्य इकोटोन को दिखाते हैं। इकोटोन का उदाहरण घास के मैदान, ज्वारनदमुखांद और नदी के किनारे है।
इकोटोन शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है- इको + टोन। टोन का अर्थ है- तनाव, एक स्थान जहाँ पारितंत्र तनाव में है।

इकोटोन को कुछ कारकों से विभेद कर सकते हैं-
(i) कभी – कभी इस क्षेत्र में कुछ प्रजातियों की संख्या और जनसंख्या घनत्व अन्य समुदायों की अपेक्षा बहुत अधिक होता है। उदाहरण के लिए घास के रंग में परिवर्तन ।
(ii) प्रजातियों में भौतिक परिवर्तन-रंग तथा आकार ।
(iii) प्रजाति में परिवर्तन। उदाहरण के लिए इकोटोन के एक भाग में एक जीव तथा दूसरे में कोई और। किसी जीव की अत्यधिक संख्या स्पर्धा शुरू कर देती है। दो समुदायों में स्पर्धा शुरू होती है जिससे वे स्थान, भोजन आदि के लिए झगड़ा करते हैं तथा एक मिश्रित पर्यावास बनाते हैं और इस प्रकार एक विविध पारितंत्र बनता है।

प्रश्न 10. प्राकृतिक पारितंत्र के संरक्षण के लिए कोई दो तरीके समझाओ ।
उत्तर – मानव द्वारा प्राकृतिक पारितंत्रों का दुरुपयोग करने से जंगली जीवन और जैव विविधता को खतरा है। किसी भी प्राकृतिक पारितंत्र के विनाश का मूल कारण बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं और हवस है। प्राकृतिक पारितंत्रों का संरक्षण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी क्षति या विनाश पारिस्थितिक असंतुलन पैदा करता है, जिससे मानव जाति भी संकटग्रस्त हो जाएगी। इसे हम निम्न विधियों द्वारा कर सकते हैं-
(i) अपनी आवश्यकताओं को कम करके।
(ii) प्राकृतिक पारितंत्र में अन्य भागों में लाई गई प्रजातियों का प्रवेश तथा मानवीय हस्तक्षेप को कम करके ।
(iii) कुछ क्षेत्रों को संरक्षित या आरक्षित क्षेत्र घोषित करके ।
(iv) हानिकारक पर्यावास में रहने वाली प्रजातियों को इनके पर्यावास में हस्तांतरित करके। जैसे दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली विश्वविद्य ने लकर दिल्ली में यमुना बायोडाइवर्सिटी पार्क स्थापित किया है।
(v) मैगा जैव विविधता और जैव विविधता को संरक्षित करके।
(vi) प्राकृतिक पारितंत्र को संरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रयत्न करके ।
(vii) पवित्र वनों, नदियों तथा झीलों को संरक्षित करके ।

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