विकास की प्रकृति और इसके निर्धारक के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न 1. विकास क्या है ? मानव जीवन के विकास क्रम के सन्दर्भ में इसे परिभाषित कीजिए।
उत्तर- पुरुष के शुक्राणु स्त्री के योनिमार्ग से प्रवेश करते हैं और उसके गर्भाशय में मौजूद डिम्ब से निषेचित होते हैं, इससे व्यक्ति जीवन शुरू होता है। बीजाण्ड सिर्फ शुक्राणु और अण्डाणु के मिलन से बनता है। स्त्री के गर्भ में यह बीजाण्ड नौ महीने तक विकसित होता रहता है। प्रसव के बाद गर्भ से नवजात शिशु निकलता है। उस शिशु का पिता या जनक पुरुष और स्त्री के शुक्राणु से गर्भ में बीजाण्ड बनता है।
शिशु गर्भ से बाहर आने से मृत्युपर्यन्त व्यक्ति में विकास और परिवर्तन का यह क्रम जारी रहता है। मानव का यह विकास क्रमिक है। हम सब जानते हैं कि जन्म लेते समय बच्चा पूरी तरह से नया होता है। उसे पहली बार एक माँ के रूप में देखते हैं। वही पिता से उसे परिचित कराती है। शिशु बोल और चल नहीं पाता। प्रारंभ में, उसकी रोशनी उसकी अभिव्यक्ति की भाषा बनती है। बच्चे का रोना माँ को बताता है कि उसे दूध चाहिए, उसे नींद आ रही है, पेट में दर्द है या कोई अन्य कारण है। 5 से 6 महीने का बच्चा सरकना, चलना और तोड़-तोड़ कर माँ, पापा और बुआ कहना सीखता है। पानी को मम, दूध दू कहते हुए दो साल तक बोलना, चलना और शैतानियां करना सीखता है।
5 साल की आयु होने पर बालक को प्रारंभिक शिक्षा के लिए स्कूल भेजा जाता था। आजकल तीन वर्ष की आयु से ही नर्सरी, KG I और II कक्षाओं में प्रवेश दिलाने का प्रचलन है। शिक्षा प्राप्त कर आजीविका कमाकर विवाह योग्य होने पर विवाह, फिर सन्तानोत्पत्ति, फिर अपने परिवार का पालन-पोषण करते-बनाते स्वयं माता-पिता आयु में बढ़ते हैं, फिर वृद्धावस्था में प्रवेश करते हैं और अंततः इस दुनिया से चले जाते हैं। इसलिए, गर्भ से मृत्युपर्यंत विकास एक प्रक्रिया है जिसमें एक प्राणी बढ़ता है। वह जीवन भर बदलता रहता है।
मानव अंगों की वृद्धि या विस्तार ही विकासात्मक परिवर्तनों में शामिल नहीं है; एक आयु के बाद (बढ़ते आयुक्रम में) हास की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। बच्चे के दूध के दांत विकास के दौरान ही टूट जाते हैं और उनके स्थान पर आसानी से नए दांत उग आते हैं। वृद्ध लोगों में भी कार्यक्षमता में कमी, बालों का सफेद होना, आंखों की दृष्टि में कमी, सुनने में कमी, चलने-फिरने में कमजोरी के कारण बेंत के सहारे चलना आदि लक्षण दिखाई देते हैं।
विकास की प्रक्रिया में चहुंमुखी परिवर्तन होता है, चाहे वह शरीर के आकार या अनुपात में हो (जैसे, बालक में 18-20 वर्ष तक लम्बाई का विकास होता है और बालिका में 12-15 वर्ष तक)। लंबाई इसके बाद नहीं बढ़ती। इसके बाद गठन, रहन-सहन, अनुभूति और विचार में वृद्धि होती है। हम कह सकते हैं कि मानव विकास परिवर्तन की एक समग्र प्रक्रिया है, जिसमें प्रत्येक व्यक्तिगत पहलू परस्पर संबंधित और एकीकृत हैं।
मान लीजिए, बारह वर्ष की एक बच्ची के शरीर में भौतिक एवं जैविक परिवर्तन उसके युवती होने के संकेत से संबंधित है। इससे स्पष्ट है कि
– विकास में जीवनभर होने वाले व्यवस्थित परिवर्तन शामिल हैं।
– विकासात्मक परिवर्तन परस्पर सम्बद्ध होते हैं।
– विकास एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ता है।
– विकास क्रम में होने वाले परिवर्तन जैविक, बौद्धिक, सामाजिक, भावात्मक विकास को समग्रता में दर्शाते हैं।
जन्म से मृत्यु तक का यह चक्र निरंतर चलता रहता है। व्यक्ति उत्पन्न होता है। मृत्यु एक निश्चित अवधि में आती है। यह क्रम है, जीवन है। इसी में जीवन है। सभी लोग इस क्रम से जुड़े हुए हैं। इसलिए समयानुकूल कार्य सही उम्र में और सही समय पर किया जाता है। जैसे पांच वर्ष की उम्र में प्यार किया गया, इसके बाद कर्तव्यबोध विकसित होता है: शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता, विवाह, सन्तान, गृहस्थ पालन, कर्तव्य निर्वाह और अंत में भजन और पलायन। जीवन की नियति और विकास-क्रम यही है।
प्रश्न 2. जैविक आधार पर मानव विकास के प्रमुख आठ चरणों में प्रथम तीन में प्रसव पूर्व, प्रारंभिक व मध्य बाल्यावस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर- गर्भधारण से लेकर मृत्युपर्यन्त मानव विकास जैविक रूप में सामान्यतया आठ चरणों में होता है। इनमें प्रथम तीन चरणों के दौरान होने वाले विकास के प्रमुख पक्ष निम्नलिखित हैं-
(क) प्रसव-पूर्व चरण– स्त्री के गर्भ में पुरुष के शुक्राणु से निषेचन क्रिया के फलस्वरूप बनने वाले बीजाण्ड की क्रिया गर्भाधान कहलाती है। इस प्रकार स्त्री के गर्भाशय में गर्भस्थ शिशु (बीजाण्ड से शिशु रूप तक) के विकास में लगभग 9 मास का समय लगता है। इस अवधि का विकास का प्रसव-पूर्व (जन्मपूर्व) विकास को पहले चरण के रूप में जाना जाता है। यह अवधि नौ मास (दस चन्द्र मास) यानी 280 दिन मानी गयी है।
जैविक दृष्टि से गर्भस्थ शिशु को जन्म प्रक्रिया के लिए तैयार होने में लगभग 266 दिन लगते हैं। सामान्यतया यह काल पूरा होने पर शिशु का वास्तविक जन्म इस अवधि के बाद किसी भी दिन हो सकता है। विकास की दृष्टि से प्रसव पूर्व चरण को भी तीन भागों में बांट सकते हैं-
उपचरण अंकुरण यह गर्भाधान से आरोपण तक का काल है। यह काल 8 से 14 दिन तक का होता है। इसमें शुक्राणु परिपक्व डिम्ब से संयोग करके जाइगोट (युग्मज-बीजाण्ड) बना लेता है और 8 से 14 दिन के भीतर यह युग्मज स्त्री के गर्भाशय की दीवार के साथ मजबूती से जुड़ जाता है। इसी को आरोपण कहते हैं।
भ्रूणावस्था उपचरण- प्रसव-पूर्व दूसरी अवस्था भ्रूणावस्था है। यह तीसरे सप्ताह से शुरू होकर आठवें सप्ताह तक रहती है। इस दौरान शरीर के सभी प्रमुख अंगों का बनना शुरू हो जाता है और हृदय धड़कना आरम्भ कर देता है।
फीटस उपचरण- यह तीसरी अवस्था है। यह तीसरे मास से शिशु के जन्म तक रहती है। इस दौरान शिशु के सभी अंग
धीरे-धीरे क्रियाशील होने लगते हैं। सभी जैविक प्रणालियाँ कार्य करने लगती हैं। शरीर रचना तेजी से होने लगती है।
(ख) जन्म से दो वर्ष तक (शैशवावस्था) – जब शिशु माँ के गर्भ से बाहर आता है, तो वह खुले वातावरण से परेशान होकर रोता है। यह रुदन शरीर का तापक्रम वायुमण्डलीय ताप के अनुकूल बनाने में मदद करता है। जन्म के समय कुछ बच्चे रोते नहीं हैं, लेकिन वे अपने जीवन के बारे में चिंतित होते हैं कि वे स्वस्थ या असमर्थ तो नहीं हैं।
नवजात शिशु में जीवनदायिनी कार्यों (श्वास लेना, चूसना, निगलना, मल-मूत्र विसर्जन) करने की क्षमता है। जन्म से एक महीने तक शिशु कुछ अजीब क्रियाएं करता है, जैसे बार-बार आवाज या खट-पट सुनकर चौंक जाना, ठोड़ी दबाने पर मुंह खोल देना, किसी चीज पर अपलक देखना, बार-बार जोर से बोलने पर चौंक जाना। शिशु को मुंह खोलने की क्रिया से माँ का दूध पीना आसान होता है। इसलिए वह मुंह में आई चीज चूसने लगा। वह चूसने से भूख लगती है।
इसी तरह, नवजात शिशु पानी में भिगोने पर हाथ-पैर हिलाकर तैरने लगता है और सांस रोकने लगता है। शिशु को इससे पानी में तैरने में आसानी होती है। वह चौककर, घबराकर जोर से सांस लेता है जब इस प्रक्रिया में उसकी नाक में पानी भर जाता है या वह भयभीत हो जाता है। इस तरह वह परिवेश के अनुकूल बनता है। जन्म से पहले ही गर्भस्थ फौट्स ध्वनियों को सुनते हैं। जन्म लेने के कुछ समय बाद से ही वह भाषा की विभिन्न ध्वनियों, जैसे बा, ना, मा, गा, आदि को माँ की आवाज से अलग समझने लगता है। शिशु जन्म से ही बोली गई भाषा को ग्रहण करने और सीखने के लिए अच्छी तरह से तैयार होता है।
जब बच्चे शैशवावस्था में होते हैं, उनका शारीरिक और गतिशील विकास नियमित रूप से होता है, इसलिए पहले दो वर्ष के शिशु का कद वयस्क के कद का लगभग आधा होता है और उनका वजन जन्म के समय से लगभग चार गुना बढ़ता है। सिर लगभग एक चौथाई पूरी लम्बाई का होता है, यानी लगभग पैरों के बराबर। लेकिन वयस्क होने पर पैर पूरे शरीर का लगभग आधा हिस्सा होते हैं, और सिर कद का लगभग 10-12 प्रतिशत होता है।
बालक सिर से पैर की ओर बढ़ता है। स्पष्ट है कि सिर और गर्दन की अपेक्षा पैर और निचले अंगों का विकास देर में होता है। निकट से दूर की ओर विकास नामक गति विकास प्रवृत्ति के कारण हाथ-पैर की उंगलियों की तुलना में गर्दन व कंधों पर नियंत्रण काफी पहले होता है।
योजनाबद्ध आनुवंशिक क्रम बच्चे में गति कौशलों का विकास करता है। लेकिन गति-कौशल के लिए अभ्यास आवश्यक है।शैशवावस्था में हाथ की गतिविधियों में अत्यधिक विकास होता है, जिसमें चीजों को पकड़ने की क्षमता और दृष्टि गति का समन्वय होता है। हम अक्सर देखते हैं कि बच्चा जिस चीज को देखता है, उस तक पहुंचने की कोशिश करता है, लेकिन उसके हाथों की गति पर नियंत्रण नहीं होता, इसलिए वह वस्तु को परिपक्वता से नहीं पकड़ पाता। 4 से 6 महीने की उम्र में बच्चा वस्तुओं को पकड़ने और उठाने लगता है, और एक वर्ष की उम्र में उंगलियों और अंगूठे से वस्तुओं को उठाने लगता है। डेढ़ वर्ष की उम्र में बच्चे पेंसिल से लकीरें खींचने लगते हैं, और दो वर्ष की उम्र में वे सीधी रेखा की नकल करने लगते हैं।
इस प्रकार, दो साल तक का बच्चा पहले सामान्य गतिविधियों पर नियंत्रण करने की कोशिश करता है और फिर जटिल और समन्वित गति के लिए दृश्य और गति संबंधी क्रियाकलापों में सहयोग करने लगता है। जबकि शिशु अभी भी गतिशील रूप से विकसित नहीं होता है, लेकिन उसके मस्तिष्क में वस्तु की स्थायी तस्वीर बनने लगती है, जिससे वह लोगों को पहचानने लगता है। किसी के जाने या किसी चीज को उसके सामने से हटाने का उसे तुरंत पता चलता है। दो वर्ष तक का शिशु अपने अनुभवों, गतिविधियों, वस्तुओं और व्यक्तियों को याद करने लगता है। अपरिचित और परिचित को अलग करने लगता है। चेहरे की भंगिमा खुशी, नाराजगी या डर का संकेत देती हैं। वह भी अभिवादन करने लगता है। टाटा, बाय, नमस्कार और अच्छे मार्निंग जैसे शब्दों से परिचित बच्चा अनुकरण करने लगता है।
(ग) प्रारंभिक बचपन- यह प्रक्रिया दो से छह वर्ष तक चलती है। अब बच्चा चलने लगता है। अपनी देखभाल करने वालों और परिवार के नियंत्रण से बाहर अपनी गतिविधियों का विस्तार करता है। वह घर से बाहर के वातावरण और समाज के साथ पारस्परिक प्रभाव से उचित सामाजिक व्यवहार सीखता है। उसकी मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है। इससे वह 3 वर्ष की आयु तक औपचारिक स्कूली शिक्षा के लिए तैयार हो जाता है।
शैशवावस्था पार करने के बाद बच्चा धीरे-धीरे प्रारंभिक अवस्था में आकर अपनी गतिविधियों और शारीरिक क्रियाकलापों में परिपक्व होता जाता है, जिससे उनके गति-कौशल अधिक परिष्कृत और सजीव होने लगते हैं। यह उनकी गतिविधियों में स्पष्ट दिखाई देता है।
तीन वर्ष का बच्चा सीधी दिशा में दौड़ सकता है और छोटी ऊंचाई से कूद सकता है बिना गिरे। बच्चा अक्सर खाट या बिस्तर से कूद-कूद कर अपनी क्षमता दिखाता है। 4 वर्ष का बच्चा एक पैर पर उछल-कूद सकता है। दूर से फेंकी गई चीज को वह पकड़ लेता है। बैट-बल्ला खेलने लगता है, यानी शारीरिक सन्तुलन में काफी परिपक्व हो जाता है।
इसी प्रक्रिया में वह अपने कार्य को स्वयं करने लगता है— जूते के फीते बांधना, कमीज उतारना, बोतल का ढक्कन खोलना, कमीज के बटन बंद करना आदि कार्य आसानी से होने लगते हैं। जो बताता है कि बच्चे का विकास सही क्रम में हो रहा है। हम भी देख सकते हैं कि तीन वर्ष का बच्चा एक बार में किसी भी काम में बीस से पंद्रह मिनट से अधिक समय नहीं लगा सकता, जबकि छह वर्ष की आयु में यह समय एक घंटे तक पहुंच जाता है।
केंद्रीय स्नायुमंडल में परिपक्वता संबंधी बदलाव कम से कम आंशिक रूप से ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में सुधार का कारण हो सकते हैं। यौवनारंभ होने तक मस्तिष्क के एक हिस्से, रेटिकुलन फॉर्मेशन (ध्यान नियंत्रण) का विकास जारी रहता है। बच्चे चुनाव करने लगते हैं। वे संबंधित मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करने में सफल होते हैं, अप्रासंगिक या बाधक घटकों को छोड़कर। अच्छी तरह ध्यान देने से उनके प्रात्यक्षिक कौशल और वस्तुओं के सूक्ष्म पहलुओं को पहचानने की क्षमता में भी सुधार होता है।
(घ) मध्य बाल्यावस्था इस आयु तक पहुंचते– पहुँचते बच्चे की पूर्व विकास दर कम होती है। यह धीमी दर की स्थिति किशोरावस्था (यौवनारम्भ) तक रहती है। इस आयु में हाथ-पैर, आंख और अन्य छोटी-छोटी पेशियों का समन्वय विकसित होता रहता है। शारीरिक कार्य कुछ तेज होते हैं। बच्चे दौड़ते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं। खेल में उनकी रुचि बढ़ती है। उसका काफी समय बाहर अपने दोस्तों के साथ बिताता है। 6 से 7 साल की उम्र में बच्चा जटिल आकृतियों, रंग-व्यवस्था और आकृति की नकल कर सकता है। वह उपकरणों और मॉडल खिलौनों को जोड़ने लगता है, देख-देखकर। प्लास और पेंचकस जैसे उपकरणों का इस्तेमाल देखकर स्वयं भी ऐसा करने की कोशिश करते हैं। इस प्रक्रिया में आंखों और हाथों का सही समन्वय आवश्यक है।
मध्य बाल्यावस्था में बच्चों की बौद्धिक क्षमता भी बढ़ती है। उनकी कल्पनाशक्ति बढ़ने लगती है। वे अपने अनुभवों को बताने लगते हैं। वे भी वस्तुओं और घटनाओं का वर्णन करने लगते हैं। यही कारण है कि उनके विचार अधिक व्यवस्थित और तर्कसंगत होते हैं। यह स्पष्ट है कि उनकी कल्पना-शक्ति अभी उतना विकसित नहीं हो पाती, इसलिए वे अमूर्त परिस्थितियों में तार्किक नियमों को अपना नहीं पाते।
उदाहरण के लिए, एक दस वर्षीय बच्चा साधारण अंकगणित की समस्याओं को हल कर सकता है, लेकिन अमूर्त विचार या कल्पना के क्षेत्र में वे अलग-अलग परिकल्पित परिणाम नहीं सोच पाते। किंतु मध्य बाल्यावस्था में आयु ज्ञान की खोज और उस पर अपना अधिकार बनाना भी शामिल है। स्मरण क्षमता बढ़ती है। इससे उसे तर्कसंगत सोच और तत्काल विचार में मदद मिलती है।
बच्चे विभिन्न क्षमताओं का प्रदर्शन करने लगते हैं। इसकी इसी रुचि का संकेत है कि वे संगीत, नृत्य, आदि में भाग लेते हैं। स्कूली आयु के बच्चे लिंग सम्बन्धी भूमिका के बारे में अधिकांश सामाजिक मानदण्ड सीखते हैं और अपने व्यक्तित्व का एक स्थायी हिस्सा मानते हैं।
हम सभी जानते हैं कि स्कूल में प्रवेश करते ही बच्चों को अपने परिवेश और दूसरों की अच्छी समझ आती है। बच्चों की तुलना में विचार तर्कसंगत होने लगते हैं। स्मरण-शक्ति और सूचना पर अमल करने की क्षमता दोनों बढ़ने लगती है। स्कूल-पूर्व का ज्ञान औपचारिक शिक्षा में मदद करता है। बच्चे को अपनी भाषा का अधिकार मिलने लगता है। जब उन्हें घर और बाहर कई भाषाओं के बीच से गुजरना पड़ता है, जैसे अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, तमिल, उर्दू, पंजाबी, आदि, बच्चे अक्सर दो से अधिक भाषाएं आसानी से सीख लेते हैं। ऐसे बच्चे द्विभाषी या बहुभाषी होते हैं। इस तरह बच्चे मध्य बाल्यावस्था में आकर अधिक बुद्धिमान हो जाते हैं।
प्रश्न 3. मानव विकास के जैविक आधार पर किशोरावस्था, प्रारंभिक एवं मध्य वयस्क के विकास स्थितियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- (क) बालक मध्य बाल्यावस्था (6 से 10 साल) के बाद किशोरावस्था में प्रवेश करता है। किशोर अवस्था बालपन से वयस्क होने का एक प्रकार है। यह व्यक्ति के लिए एक मजबूत नींव की अवस्था है। यह समय यौवन के प्रारम्भ से लेकर वयस्क या प्रौढ़ होने तक चलता है। (10-19 वर्ष) यह स्थिति होती है। इस अवस्था में बालक में यौवनारम्भ और यौन परिपक्वता का आरम्भ होता है। इसलिए इस उम्र में तीव्र भौतिक और जैविक बदलाव होने लगते हैं। वास्तव में, युवावस्था का यह चरण कई तरह की चुनौतियों से भरा होता है।
मानव मस्तिष्क के उपरिभाग में स्थित अन्तःस्रावी ग्रॉथ पीयूष ग्रंथि (पिट्यूटरी ग्लैण्ड) से यौन हॉर्मोन के स्रावित होने से यौवन अवस्था का सीधा संबंध है। इसके दो संस्करण हैं –
पुरुषों में यह ग्रंथि पुरुष हॉर्मोन एण्ड्रोजन का स्राव करती है तथा स्त्रियों में यह स्त्री हॉर्मोन एस्ट्रोजेन का स्रवण करती है। ये स्त्री या पुरुष हॉर्मोन और अन्य जैविक घटक तीव्र विकास अथवा तीव्र शारीरिक परिवर्तनों और साथ ही प्राथमिक तथा गौण यौन विशेषताओं के आरम्भ के कारक होते हैं।
लड़कियों में अण्डाशय में अण्डाणु का बनना और मासिक धर्म का चक्र प्रारम्भ होना, इसी के साथ स्तनों का विकास झलक उठना स्त्री सम्मत विकास के स्तर हैं, जबकि लड़कों में शुक्राणु का निर्माण और दाढ़ी-मूंछ का उग आना तथा स्त्री पुरुष दोनों में ही बगलों व गुप्तांगों पर बालों का उग आना सामान्य लक्षण हैं।
शारीरिक दृष्टि से किशोरावस्था आकस्मिक और तीव्र विकास अथवा ‘विकास की आंधी का काल’ कहा जा सकता है। करीब 9 वर्ष की अवधि (10 से 19 वर्ष तक) में ‘भारत में लड़के 36 सेंटीमीटर से अधिक कद और 25 किलोग्राम भार अर्जित करते हैं, जबकि भारतीय लड़कियां इस अवधि में 24 सेमी. कद और 21 किलोग्राम भार प्राप्त करती है। किशोरावस्था के अन्त तक एक वयस्क की दृष्टि से 98 प्रतिशत वृद्धि पूरी हो जाती है।
(ख) प्रारंभिक वयस्कता- पूर्ण यौवनावस्था या प्रारंभिक वयस्कता, किशोरावस्था के बाद की अवधि (19-35 तक) कहलाती है। युवा वयस्क पूरी तरह से सामाजिक कार्यकर्ता बन जाता है। युवकों के लिए 21 वर्ष और युवतियों के लिए 18 वर्ष भी विवाह योग्य आयु है। इससे पहले, एक युवा जोड़ा को कच्ची उम्र का विवाह कहते थे। युवतियों में 12- 13 वर्ष की आयु में और युवकों में 15-16 वर्ष की आयु में यौवनाओं की क्रियाशीलता व क्षमता शुरू हो जाती है, लेकिन आंगिक परिपक्वता 18 व 21 वर्ष की आयु में ही हो पाती है। यही कारण है कि भारतीय धर्मशास्त्रों में पुरुषों के लिए ब्रह्मचर्याश्रम के लिए 25 वर्ष की आयु निर्धारित की गई है, क्योंकि इस आयु तक युवा पूरी तरह से पुष्ट हो जाता है और गृहस्थ धर्म के लिए पूरी तरह से योग्य हो जाता है।
स्त्रियों के लिए यह आदर्श आयु 21 वर्ष है, लेकिन आज भारतीय संविधान 21 वर्ष के युवक को वयस्क मताधिकार देता है, इसलिए पुरुषों के लिए वैधानिक रूप से विवाह की आयु 21 वर्ष ही मान्य है। स्त्रियों की आयु 18 वर्ष है। इस आयु तक युवती के जनन अंग पूरी तरह से पुष्ट हो चुके हैं और उसके चेहरे पर नवयौवन का लावण्य उभर आता है।
इस प्रकार आंगिक पुष्टता प्राप्त युवक-युवतियां गृहस्थ में प्रवेश करते हुए अन्तरंग सामाजिक और यौन संबंध बनाते हैं। यद्यपि अधिकांश शारीरिक विकास युवावस्था के अंत तक पूरा हो जाता है, प्रारंभिक वयस्कता में भी कुछ गतिविधियां होती हैं। इनका संबंध भी बढ़ते आयुक्रम में शक्ति का धीरे-धीरे कम होने से है, जैसे 35 वर्ष की आयु में व्यक्ति की दृष्टि क्षीण होने लगती है। इसका पूरा आभास तो चालीस वर्ष की आयु में ही हो सकता है, लेकिन यह पहले इस युवावस्था में ही होने लगता है। दांतों के ऊपर के मसूढ़े कमजोर होने लगते हैं और सिकुड़ने लगते हैं। कनपटी के बाल पककर सफेद दिखने लगते हैं।
इस तरह, प्रारंभिक वयस्कता में ऊपर की ओर बढ़ने वाला ग्राफ संचित शक्ति का संकेत था, लेकिन रूप और शक्ति के उपभोग से ग्राफ अंत तक नीचे की ओर (गिरने) लगता है। शारीरिक क्षमता में कमी भी महसूस होने लगती है। धीरे-धीरे पाचन शक्ति कम होने लगती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, श्वास रोग और हाथ-पैरों में दर्द आदमी के जीवन में उमंगों के दौरान स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही का परिणाम है। वयस्कता की शुरुआत में भी यह शारीरिक क्षय दिखाई देने लगता है।
(ग) मध्य वयस्कता – प्रारंभिक वयस्कता के बाद 35 से 60 वर्ष तक यह चरण रहता है। उस समय, व्यक्ति अपने जीवन-क्रम में पूर्णता का आभास करते हुए धन, ऐश्वर्य और दायित्वों को पूरा करने की कोशिश करता है, लेकिन शारीरिक क्षमता का ग्राफ धीरे-धीरे गिरने लगता है। पाचन तंत्र, रक्त संचार, नेत्र दृष्टि आदि में मांसपेशियां और उनसे जुड़े अंगों और प्रणालियों में कमी आने लगती है। यौन गतिविधियां और जनन प्रणाली भी मध्य वयस्कता में बहुत बदल जाते हैं। महिलाओं में इसे मीनोपॉज या रजोनिवृत्ति काल कहते हैं। स्त्री के अण्डाशय से डिम्ब बनना बंद हो जाता है, जिससे मासिक धर्म बंद हो जाता है। आयु 45 से 50 वर्ष होती है। पुरुषों में भी इस आयु तक यौन हॉर्मोन कम होने लगते हैं। प्रोस्टेंट ग्रंथि की कार्यप्रणाली भी कम होती है। उससे भी यौनेच्छा प्रभावित होती है, यानी वह कम होने लगती है।
वृद्धावस्था में कुछ संज्ञानात्मक परिवर्तन भी होते हैं। स्मरण शक्ति पर असर डालता है। आदमी बातें भूल जाता है। इसलिए आज की बातें याद रहती हैं, लेकिन दीर्घकालिक स्मृति में कमी आने लगती है। बौद्धिक क्षमता पर भी थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ता है, लेकिन विवेक, प्रज्ञा और रचनात्मकता में वृद्धि से इसका लाभ मिलता है। इसलिए इस परिस्थिति में व्यक्ति जटिल समस्याओं का समाधान करने में अधिक सक्षम होता है।
प्रश्न 4. मानव विकास के अंतिम चरण वृद्धावस्था पर टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर- वृद्धावस्था मानव जीवन के विकास का अंतिम चरण है। यह चरमावस्था है। आगे कोई अतिरिक्त विकास-चरण नहीं होता। मृत्यु की शरण में जाकर ही कोई मुक्ति पा सकता है। लेकिन जीवन की संभाव्यता में वृद्धि और लंबे समय तक नौकरी करते रहने से वृद्धावस्था का आरम्भ कुछ देरी से हो सकता है। सक्रिय नौकरी से अवकाश लेने वाले लोगों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसमें शारीरिक अशक्तता के कारण फिटनेस में कमी, स्वास्थ्य में गिरावट, जीवन-साथी सहित परिवार में निकट लोगों (जैसे भाई, बहिन, बहनोई) की मृत्यु या दूरस्थ मित्र की मृत्यु शामिल हैं।
शरीर की पाचन सम्बन्धी चयापचय (मैटोबोलिक) क्रियाएं वृद्धावस्था में कम होने लगती हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव व्यक्ति की भूख पर होता है। भूख भी कम हो जाएगी क्योंकि भोजन का पाचन धीमी हो जाएगा। सभी जानते हैं कि बचपन में चार चपाती और भात खाने वाला व्यक्ति 60 वर्ष की उम्र में दो चपाती खाने लगता है। जब गैस बनने लगती है, भात छूट ही जाता है। इसी तरह शरीर के अन्य अंगों की कार्यक्षमता में भी कमी आने लगती है।
शरीर की जैविक (बायलॉजिकल) घड़ी में भी आनुवांशिक बदलाव होते हैं। इन बदलावों ने जीवन रेखा को सीमित कर दिया है। और जैसे-जैसे व्यक्ति जीवन के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ता जाता है, जीवन की सार्थकता का आकलन करने की प्रक्रिया भी मस्तिष्क में घर करने लगती है।
महान मनोवैज्ञानिक इरिक्सन का मत है कि रचनात्मक रूप से जीवन को देखने वाले लोगों में जीवन के प्रति निष्ठा होती है। ऐसे लोगों को अक्सर मरने का भय नहीं होता। वे सार्थक कर्म में विश्वास रखते हैं। ये लोग मरने की चिंता नहीं करते। वरना बुढ़ापे के लोग समाज को कुछ अधिक योगदान नहीं दे पाने के कारण निराश हो सकते हैं। इरिक्सन ने इस समस्या को हताशा और जीवन के प्रति निष्ठा का समय बताया है।
रचनात्मक और सार्थक व्यक्ति वृद्धावस्था को जीवन के प्रति निष्ठा का समय मानते हैं, जबकि निरर्थक और निराशावादी व्यक्ति वृद्धावस्था को हताशा और उदासी का समय मानते हैं। यह आम है कि लोग जीवन और मृत्यु की चुनौतियों को अलग-अलग तरह से लेते हैं। वृद्धावस्था को व्यक्ति का विचार ही वरदान या अभिशाप बनाता है।
प्रश्न 5. मानव विकास के भारतीय दृष्टिकोण पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर- मानव विकास के बारे में भारतीय जीवन दृष्टिकोण के आधार पर जीवन को आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया माना गया है, जो चार चरणों या आश्रमों में विभक्त है-
(i) ब्रह्मचर्याश्रम,
(ii) गृहस्थाश्रम,
(iii) वानप्रस्थाश्रम,
(iv) संन्यासाश्रम |
चारों चरणों अथवा आश्रमों का आयुकाल मानव की पूर्ण आयु 100 वर्ष मानकर 25-25 वर्ष माना गया है। उत्तर-विकास एक प्रक्रिया है, जिसमें प्राणी बढ़ता है और
प्रश्न 6. विकास प्रक्रिया क्या है?
उत्तर- विकास एक जीवित प्रक्रिया है, जिसमें व्यवस्थित परिवर्तन गर्भधारण से मृत्यु तक चलते रहते हैं। विकासात्मक परिवर्तनों में न केवल मानव अंगों की वृद्धि या बढ़ोतरी होती है, बल्कि उनका क्षय या पतन भी होता है। यह एक निरंतर और निरंतर प्रक्रिया है, जो धीरे-धीरे होती है।
प्रश्न 7. परिपक्वता कैसा परिवर्तन है?
उत्तर- विकासात्मक परिवर्तनों में परिपक्वता से होने वाले परिवर्तन भी शामिल हैं। परिपक्वता ऐसा परिवर्तन है जिसका स्वरूप जैविक है, जो हमारी आनुवंशिक विरासत के कारण होता है।
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