प्रश्न 4. संवेगों की उत्पत्ति का स्वरूप बताइए ।
उत्तर – संवेगों की उत्पत्ति का स्वरूप- डर एक ऐसा संवेग है, जो खतरों से बचाने के लिए कारक के रूप मे काम करता है । इसी प्रकार प्रेम सम्बन्ध का रिश्ता बनाने में एक अहम भूमिका का निर्वाह करता है। बच्चों का माता-पिता के साथ डर और प्रेम दोनों ही भाव कारगर होते हैं। डर अनुशासन की दृष्टि से व प्रेम पारस्परिकता के लिए होता है।
संवेग अपने विकासक्रम के साथ बदलते रहते हैं। बेतकुल्लफी के लक्षणों में मुस्कुराना, क्रोध, कुतुहल, जिज्ञासा, संकोच और उत्सुकता शामिल हैं। जब आप कुछ और बड़े होते हैं, तो आप प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, उदारता और अंततः यौन आकर्षण महसूस करने लगते हैं। विभिन्न व्यक्तित्व सिद्धान्तों के अनुसार, बच्चों के सांवेगिक अनुभवों का व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। सांवेगिक प्रतिक्रिया: जैसा कि हम जानते हैं, हर संस्कृति में सांवेगिक व्यवहार और संवेगों को क्या माना जाता है, उसकी पारिभाषिक शब्दावली भी अलग-अलग होती है।
जीवन में ये संवेग बहुत कुछ बदलते हैं। अंतःस्रावी ग्रंथियां, तंत्रिका तंत्र आदि का स्तर बहुत बदलता है। इससे ग्रंथियों, रक्त चाप, पाचन और हृदय की गति भी बदल जाती है। संवेगों से मस्तिष्क के कई केंद्र जुड़े हुए हैं। इन केंद्रों का नाम लिम्बिक है।
प्रश्न 5. संवेग और संज्ञानात्मक क्रियाओं का वर्णन कीजिए ।
उत्तर- मानसिक अवसाद में संज्ञानात्मक उपचार बहुत फायदेमंद है। जिन लोगों को मानसिक अवसाद है, उनके मन में मौजूद कुछ विचार, सिद्धांत और प्रणाली ही उनके अवसाद को बढ़ाती हैं। जब किसी विद्यार्थी को परीक्षा में अपेक्षित अंक नहीं मिलते, तो वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि वह अच्छा विद्यार्थी नहीं है या इस योग्य नहीं है कि अच्छे अंक ला सके। वह कुछ भी नहीं है। यही कारण है कि अगर कोई आलोचक किसी कवि को उनके प्रकाशित कविता संग्रह पर विचार गोष्ठी में कड़ी टिप्पणी करते हुए उसे अधिक सार्थक कविता लिखने का सुझाव दे तो कवि निराश हो जाएगा। वह बहुत दुखी होगा कि उसकी मेहनत व्यर्थ हुई।
उसे गोष्ठी में उसकी कविता की सराहना करने वाले लोगों के सकारात्मक टिप्पणियों पर अधिक विचार नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके सकारात्मक टिप्पणियों पर अधिक ध्यान देना चाहिए। ऐसे कई मौकों पर कही गई अनावश्यक बातों को ध्यान नहीं देना चाहिए। इसी तरह के नकारात्मक विचारों की पहचान भी संज्ञानात्मक उपचार से मिलती है। हम सब जानते हैं कि जब दो मित्र आपस में कहासुनी करते हैं और गलतफहमी दूर हो जाती है, तो वे क्रोधित और घायल हो जाते हैं। कभी-कभी अंधेरे में दिखाई देने वाली छाया को चोर की छाया समझकर डर जाता है, जबकि यह सिर्फ दीवार पर टंगे कपड़े की छाया है।
व्यक्ति में संवेग की उत्पत्ति भी इस स्थिति से निर्धारित होती है। स्पष्ट है कि हमारी संवेगात्मक प्रक्रियाएं विचार प्रक्रिया से बदलती हैं। इसी तरह का उपचार मनोचिकित्सा में भी किया जाता है। संज्ञानात्मक चिकित्सा ने अवसादग्रस्त लोगों पर बहुत ही प्रभावी काम किया है। यह हमें सीख देता है कि जीवन में आने वाली चुनौतियों को कैसे देखें, ताकि हम उन्हें अवसरों में बदलकर अपनी छिपी हुई शक्तियों और प्रतिभा को प्रकट कर सकें।
प्रश्न 6. ‘सांवेगिक परेशानियां मानसिक बीमारियों का मूल हैं।’ इस कथन की पुष्टि कीजिए ।
उत्तर – वास्तव में, एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया सांवेदिक स्थिति पर बहुत कुछ निर्भर करती है क्योंकि उनकी पूर्वधारणाएं और अभिवृत्तियां हमारे समझने के तरीकों को प्रभावित करती हैं। अतः संवेगात्मक प्रक्रियाएं सोचने की प्रक्रिया से सीधे प्रभावित होती हैं। यही कारण है कि अधिकांश संवेग शामिल हैं।
सांवेगिक समस्याएं मानसिक बीमारी का मूल कारण हैं। इसमें फोबिया स्तर की कुछ सांवेगिक परेशानियां हैं, जैसे डर, चिन्ता, अवसाद और संवेगों का अभाव या असंयुक्त। शीजोफेनिया, फोबिया पैनिक डिसऑर्डर और मूड डिसऑर्डर इसी तरह की बीमारियां हैं। मनोवैज्ञानिकों को अभी तक पता नहीं है कि इन परिस्थितियों का कारण क्या है। लेकिन अध्ययन ने पाया कि जीवन में अनुभवों की जटिलताएं, जैविक कारक आदि ही इन रोगों के लिए अनुकूल परिस्थितियों को बनाने में मदद करते हैं।
मनुष्य की सहनशक्ति की सीमा होती है, और ये बीमारियां खुलकर सामने आती हैं जब इस सतह के अनुभव की सीमा पार हो जाती है। इसलिए यह बात सही है कि सांवेगिक परेशानियां मानसिक बीमारियों का मूल हैं। स्पष्ट है कि व्यक्ति का स्वास्थ्य और आरोग्य संवेगों (सांवेगिक पेरशानियां या नकारात्मक संवेग) से सीधे संबंधित है।
यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक व्यथित रहता है, तो उसके शरीर और स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है। सांवेगिक उत्तेजना अक्सर एक व्यक्ति का रक्तचाप और हृदय गति बढ़ाता है। हम जानते हैं कि हर सांवेगिक परिस्थिति या प्रतिबल हारिकारक नहीं होता।, क्योंकि ये प्रतिबल दो प्रकार के होते हैं-
(i) सकारात्मक ( प्रतिबल) संवेग
(ii) नकारात्मक ( प्रतिबल)
संवेग सकारात्मक प्रतिबल सकारात्मक उत्तेजना खुशी, जोश, उत्साह, प्रेम, आत्मीयता, आदि भाव जगाते हैं। ये लाभदायक होते हैं, जबकि नकारात्मक संवेग ( प्रतिबल) नकारात्मक उत्तेजना की स्थिति पैदा करते है, जैसे- गुस्सा, कुण्ठा, निराशा, हतोत्साह, अवसाद, विकलता आदि और सीधे-सीधे व्यक्ति मस्तिष्क की कार्यविधि की नकारात्मक दिशा में व्यवधान पैदा करते हैं। ये मस्तिष्क की प्रभावोत्पादकता और एकाग्रता में कमी लाते हैं। यह भी एक सच है कि कई बार रचनात्मकता और सांवेगिक तनाव की स्थितियां एक दूसरे से संबंधित हो जाती हैं। ये इस तरह सकारात्मक हो उठते हैं। पन्त ने लिखा है-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकलकर आंखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान |
यानी उत्कृष्ट साहित्य गहरी संवेदना और दर्द व्यक्ति या समूह से उपजता है।
यही कारण है कि दुःख कभी-कभी रचनात्मक उपचार से व्यक्ति को नए प्रकार के आत्म-अभिव्यक्ति की स्थिति में लाता है। यह संगीत, कला, कविता और रचनात्मकता का मूल है। तभी तो कहा गया है कि दर्दपूर्ण गीत सबसे मधुर होता है। अतः यह व्यक्ति की सोच और स्वस्थ दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह सकारात्मक परिस्थितियों को बढ़ाकर नकारात्मक से अप्रभावित रहता है। कम कर सकता है भारतीय मनोविज्ञान इसलिए मानसिक संतुलन की ऐसी स्थिति का वर्णन करता है, जिसमें संवेगों और आवेगों को छोड़कर जीवन की घटनाओं को बिना पूर्वाग्रह के देखना, यानी बिना पूर्वाग्रह के जो कुछ हो रहा है, उसे देखना। यह करना मुश्किल नहीं है, लेकिन यह मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए एक प्रभावी उपाय है।
प्रश्न 7. प्रेरणा के तथ्य के रूप में मूल प्रवृत्ति एवं आवश्यकता का वर्णन कीजिए।
उत्तर- हम सब जानते हैं कि कुछ नियंत्रण मानव व्यवहार, क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं। यदि कोई अपनी आवश्यकताओं और उनके साथ जुड़े प्रेरणाओं को समझ ले, तो वह खुद को बेहतर जान सकता है. यह प्रेरणा ही है जो प्रेरित करती है।
मूल प्रवृत्ति – ऐसी पूर्वनिर्धारित क्रियाएं मूल प्रवृत्ति कहलाती हैं, जिनका जीववैज्ञानिक आधार है। यह काम भावना, बच्चों की देखभाल, भूख और प्यास के लिए आवश्यक है। लेकिन यह भी सच है कि मनुष्यों में सीखने की प्रवृत्ति का महत्व पूर्वनिर्धारित मूल प्रवृत्तियों से कहीं अधिक है।
आवश्यकता – आवश्यकता एक प्रकार की व्यक्ति की आन्तरिक कमी है, जो उसके व्यवहार को निर्धारित करती है। सामान्यतया ये आवश्यकताएं निम्न प्रकार की होती हैं-
जैविक आवश्यकताएं- भूख प्यास, काम, क्रियाकलाप, समस्त यौन आवश्यकताएं।
मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं – ये व्यक्ति मन से जुड़ी होती हैं। इसमें आर्थिक, राजनैतिक सामाजिक मानसिक आवश्कताएं हैं तथा काम, क्रोध, कुण्ठा, निराशा, हर्ष, उत्साह भाव युक्त मनोदशाएं मनोवैज्ञानिक आवश्यकता की ही परिमापन हैं। इन आवश्यकताओं में प्रमुख हैं-
• उपलब्धि की इच्छा
• दूसरों से जुड़ने की इच्छा
• शक्ति की इच्छा
• सफलता की इच्छा
● मान्यता व अनुमोदन की इच्छा ।
प्रश्न 8. उदाहरण सहित समझाइए कि संवेग का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर – मानव शरीर संवेग से बहुत बदल जाता है। शरीर की अन्तःस्रावी ग्रथियां, तंत्रिका तंत्र आदि के कारण शरीर पर काफी प्रभाव पड़ता है। परिणामों में पाचन तंत्र, रक्त तथा ग्रंथियों का स्राव और हृदय की गति शामिल हैं। शरीर के कई केन्द्र मस्तिष्क से संवेगों द्वारा ही जुड़े हुए हैं। इससे हॉरमोन में बदलाव होते हैं, जो स्वचालित तंत्रिका तंत्र से जुड़ी प्रतिक्रियाओं को जन्म देते हैं। इसलिए, संवेगों का व्यक्ति के स्वास्थ्य और कुशल क्षेम से सीधा संबंध है। व्यवहार भी बहुत बदल जाता है। जिन लोगों को मानसिक अवसाद है, उनके मन में कुछ विचार, विश्वास और तंत्र हैं, जो उनके अवसाद को बढ़ाते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि किसी विद्यार्थी को परीक्षा में अच्छे अंक नहीं मिले, तो वह निराश हो जाएगा और उसी मानसिक दबाव में यह निष्कर्ष निकाल लेगा कि वह अच्छा नहीं है। वह कभी काम नहीं करेगा। उसे एक ही परीक्षा का निराशाजनक परिणाम मिलेगा। जब उसका उत्साह खत्म हो जाएगा, तो वह अकेला और निराश हो जाएगा। उसकी भूख मिट जाएगी, वह कमजोर हो जाएगी और इससे वह भी रोगग्रस्त हो सकता है। हालाँकि, हालात इसके विपरीत भी हो सकते हैं और छात्र असफलता से प्रेरित होकर फिर से प्रयास करने के लिए प्रेरित हो सकता है।
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