प्रश्न 3. समूह का निष्पादन तथा जोखिम लेने के व्यवहार पर प्रभाव को बताइए ।
उत्तर – व्यक्ति की निष्पादन प्रक्रिया समूह द्वारा आसानी से या कठिन हो जाती है। जैसे कि कोई पूरी तरह से काम करता है। यदि कोई छात्रवास में रहता है और उसके कमरे में उसका रूम पार्टनर भी है, तो छात्र तभी पढ़ सकता है जब उसका पार्टनर या तो सो रहा हो या स्वयं पढ़ रहा हो। वह किसी और परिस्थिति में दूसरे छात्रों से मिल सकता है; एक टीम की तरह यह स्पष्ट है कि दूसरे लोगों का काम करने के संदर्भ में अलग-अलग परिस्थितियों में प्रभाव असल में काम में हिस्सा लेने वालों के साथ व्यक्ति के संबंध पर निर्भर करता है।
दूसरों की उपस्थिति अक्सर काम की गुणवत्ता और क्षमता पर सीधा प्रभाव डालता है। अक्सर निष्पादन आसानी से होता है। अब एक युवा साइकिल दौड़ में सबसे पहले भाग लेना चाहिए। युवक पिछले कई महीने से साइकिल दौड़ने के लिए लगातार तेज साइक्लिंग करता रहा है। युवक को मुकाबले के दिन भीड़ में अपने प्रतिद्वन्द्वियों के साथ साइक्लिंग करना होगा।
विचार की बात है: क्या युवक का प्रदर्शन अभ्यासक से बेहतर होगा या बुरा? इसमें देखा गया है कि दूसरों की उपस्थिति में पक्षधरों की प्रशंसा और उत्साह भावना का कार्य निष्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और अकेले अभ्यास की अपेक्षा अच्छे परिणाम मिलते हैं।
इस तरह, समूह में काम करने वाले व्यक्ति की निष्पादन क्षमता बढ़ जाती है जब कोई भी जटिल से जटिल कार्य किया जाता है, जिसमें पर्याप्त उच्चतर चिन्तन भी आवश्यक होता है।
हम अकेले घर पर काम करते समय अक्सर थक जाते हैं या थक जाते हैं, लेकिन स्कूल में अध्ययन करते हुए प्रातः 7:30 बजे से दोपहर 12:30 बजे तक उत्साहपूर्ण वातावरण में मित्रों और सहपाठियों के बीच बिना थके काम करते रहते हैं। समय बीत गया। यह स्पष्ट है कि समूह की कार्य-निष्पादन क्रियाओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह भी समझा जा सकता है कि रुचि लेने वाले दर्शक या साथ काम करने वाले सहकर्मियों की उपस्थिति से उद्वेलन में वृद्धि होती है। प्रबल प्रतिक्रिया उद्वेलन के दौरान होती है।
उन परिस्थितियों में ऐसी प्रतिक्रिया या व्यवहार करने की क्रिया तीव्र हो जाती है। यह प्रश्न उठ सकता है कि उस परिस्थिति के लिए यह तीव्र प्रतिक्रिया सही (उत्प्रेरक) या गलत (बाधक) हो सकती है। ऐसे में गलत प्रतिक्रिया निष्पादन को खराब करती है, जबकि सही प्रतिक्रिया अच्छी होती है। सामाजिक अनुत्तरदायित्व: एक समूह में रहते हुए दूसरे लोगों का काम देखना स्वाभाविक है। यह स्थिति तब होती है जब कोई व्यक्ति केवल समूह का सदस्य होता है और कार्य अपना नहीं होता।
कल्पना कीजिए कि एक मित्र को घर बदलना है, और उसके सामान कोक घर से दूसरे घर में शिफ्ट करने के लिए कुछ लोग (पड़ोसी या मित्र) आते हैं। पलंग, सोफा, डायनिंग टेबिल, स्टील की अलमारी और अन्य भारी सामान उठाने में कुछ लोग सक्रियता से इस सहायता कार्यक्रम में सहयोग देंगे। कुछ लोग इसमें पीछे रहेंगे। जो उठाने में लगे हैं, उनमें से कुछ बीच में हाथ भर देंगे। आगे से उठाने वालों पर सारा बोझ पड़ेगा। यही कारण है कि विचारणीय प्रश्न है कि क्या सभी लोग मिलकर काम करेंगे? अनिवार्य: नहीं। जबकि कुछ लोग सिर्फ खड़े रहेंगे, तो दूसरे उतना भार उठाएंगे, जितना वे उठा सकते हैं। कुछ लोग तेजी से शोर भरेंगे, ताकि प्रदर्शन से अधिक काम करें।
सामाजिक मनोवैज्ञानिकों ने इसे सामाजिक उत्तरदायित्व कहा है। यही कारण है कि ऐसी परिस्थितियों में अक्सर देखा गया है कि समूह सामूहिक या व्यक्तिगत कार्य करते हैं, न कि व्यक्तिगत। यौगिक कार्यों में सभी सदस्यों का योगदान सामूहिक रूप से प्रकट होता है। ऐसे यौगिक कार्यों में कुछ लोग कठिन श्रम करते हैं, कुछ लोग झांसा देते हैं, यानी अपने हिस्से के निश्चित काम से कम काम करते हैं, जितना अकेले करते हैं, उससे भी कम। यही सामाजिक दायित्व है।
वास्तव में, सामाजिक जीवन की एक बड़ी सच्चाई है सामाजिक उत्तरदायित्व। दायित्व का विस्तार इसका एक बड़ा कारण है। इस दिशा में मनोवैज्ञानिकों का अध्ययन बताता है कि समूह का आकार बढ़ने के साथ प्रत्येक सदस्य अपने आप पर कम से कम जिम्मेदारी मानता है। इससे हर सदस्य कम मेहनत करता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि समूह कार्य में भाग लेने की प्रेरणा कम हो जाती है क्योंकि कुछ सदस्यों को लगता है कि उनका योगदान अकेले नहीं देखा जा सकता है, इसलिए वे सक्रिय सहयोग क्यों करें? ‘सामूहिक प्रयास मॉडल’ सामाजिक उत्तरदायित्व की सबसे व्यापक व्याख्या है— यह मॉडल बताता है कि व्यक्तिगत प्रेरणा का मूल सिद्धांत विस्तारित करके सामूहिक अनुत्तरदायित्व को समझा जा सकता है। इसके कुछ सूत्र निम्नलिखित हैं-
(अ) वे यह विश्वास करते हैं कि कठिन परिश्रम से अच्छा निष्पादन होगा।
(ब) वे यह विश्वास करते हैं कि अच्छे निष्पादन को महत्त्व दिया जायेगा और पुरस्कृत किया जाएगा।
(स) जो पुरस्कार उपलब्ध हैं, उन्हें वे मूल्यवान मानते हैं और चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, अकेले काम करने वाले व्यक्ति उसी सीमा तक प्रयास करेंगे, जहां तक वे कठिन परिश्रम और वांछित परिणाम के बीच संबंध देखते हैं।
जब तक ये नियम लागू हैं, यानी व्यक्ति कार्य को उसी सीमा तक पूरा करेगा। यह देखा गया है कि पूर्वोक्त विचार अकेले काम करते समय कमजोर होते हैं। इसलिए पहले प्रत्याशा को देखना होगा। यह प्रत्याशा अकेले काम करते समय अधिक हो सकती है, जबकि समूह में काम करते समय कम हो सकती है, क्योंकि लोगों को लगता है कि उनके व्यक्तिगत प्रयासों के अलावा दूसरे कारक भी काम को प्रभावित करते हैं। इसी तरह, समूह में काम करने से काम की उपादेयता भी कम हो जाती है क्योंकि उचित लाभांश मिलने की संभावना नहीं होती।
यहां कारक सामाजिक अनुत्तरदायित्व को जन्म देता है क्योंकि परिश्रम के स्तर और पुरस्कार के बीच संबंध के बारे में अनिश्चय है। जोखिम लेना भी प्रभावी है। प्रायः अनिश्चयपूर्ण परिस्थितियों में काम करने वाले लोगों को जोखिम उठाना पड़ता है। क्या एक व्यक्ति अकेले या समूह में अधिक जोखिम उठाएगा? पुराने अनुभव बताते हैं कि समूह में लोग अधिक जोखिम लेते हैं, लेकिन नए अध्ययन बताते हैं कि समूह की दशा में निर्णय का ध्रुवीकरण होता है, जिससे जोखिम अधिक या कम हो सकता है।
प्रश्न 4. जीवन के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर- वास्तव में सभ्यता मानकों और नियमों की एक व्यवस्था है, जो लोगों के आचरण को नियंत्रित करती है, ताकि वे अच्छा काम कर सकें और आगे बढ़ सकें। यही कारण है कि सभ्यता को संदर्भित करते हुए कहा जाता है कि यह तकनीकी और सांस्कृतिक विकास का अपेक्षाकृत उच्च स्तर को व्यक्त करता है, और सभ्यता का अर्थ है सांस्कृतिक विकास का तार्किक रूप से व्यवस्थित स्तर प्राप्त करना। कई शताब्दियों तक मानव ने अपने बौद्धिक क्षमता के आधार पर सभ्यताएं बनाई हैं, जो उन्हें सुरक्षित जीवन जीना और परिवेश को नियंत्रित करना संभव बनाया है।
वास्तव में, समाज को संतुलित बनाए रखना ही सामाजिक मानकों का उद्देश्य है। इसमें व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को दूसरों की कीमत पर स्वतंत्रतापूर्वक पूरा करने से रोकने का प्रावधान है। सामाजिक मानकों का परिष्कार मूल्यों से दिखाई देता है। समय के साथ, ये नैतिक मूल्य पुनः परिभाषित होते हैं और लोगों द्वारा अपनाए जाते हैं। अंग्रेजी में ऐटिकेट शब्द है। इस ‘एटिकेट’ का सामाजिक प्रचार भी इन मानकों से होता है। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात यह है कि जो कार्य बिना अनुमति के हों, दूसरों के हितों में अनधिकार हस्तक्षेप हों या समाज बुरे कार्य के रूप में मानता हो, वे सामान्यतया मानव सभ्यता की प्रभावी व्यवस्था को बाधित करते हैं।
यही कारण है कि ऐसे कार्यों पर प्रतिबंध लगाना समाज की स्वीकृति पाकर मानव-जीवन और मानव सम्पत्ति का मूल्य बढ़ाता है, जैसे चोरी या हत्या, जो समाज के हित में वांछित नहीं है। इसलिए हत्या या चोरी पर “रोक” मान ली जाती है। मूल्य इस प्रकार समाज में स्वीकृत व्यवहार के मानकों को व्यक्त करते हैं। मानव संस्कृतियां उपयोगी मानकों और क्रमिक विकास से विकसित हुई हैं। वर्तमान कानून भी समाज के व्यवहारसम्मत मानकों पर आधारित हैं ताकि सभी वर्गों (गरीब, अमीर, छोटे-बड़े, सवर्ण-अवर्ण) के जीवन की सुरक्षा की जा सके। मूल्य व्यवस्था इस मानकों को मानते हैं। मूल्य दृष्टि के समाजीकरण की दिशा में जो समाज आगे बढ़ता है, उसे पुलिस की आवश्यकता कम होती है क्योंकि लोग मूल्य दृष्टि विकसित करके स्वयं मार्गदर्शन कर सकते हैं।
मूल्य दृष्टि के समाजीकरण में सीखना और व्यापक शिक्षा दोनों शामिल हैं। सीखने में विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति और बौद्धिक उपलब्धि शामिल हैं, जबकि शिक्षा में मूल्यों का ज्ञान प्राप्ति शामिल है। प्रारंभिक समाजीकरण में व्यक्ति को विशिष्ट व्यवहार सिखाया जाता है, लेकिन उम्र बढ़ने पर व्यक्ति से सामाजिक मानदण्डों को अपनाने और मूल्य व्यवस्था बनाने की उम्मीद की जाती है। छोटे बच्चे को पहले सिखाने के भाव से ईमानदारी से व्यवहार करना सिखाया जाता है, फिर ईमानदारी को एक मूल्य के रूप में समझने को कहा जाता है, जो उनके भविष्य के व्यवहार को निर्देशित करता है।
एक मूल्य दृष्टि विकसित करना व्यक्ति को सभ्य और प्रभावी ढंग से स्वचालित रूप से व्यवहार करने में सक्रिय कारक है। वास्तव में, मूल्यों ने मानव जीवन के हर हिस्से में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और दैनिक जीवन में भी मूल्यों को व्यक्त किया जाता है। इसलिए व्यक्ति की पूरी विश्वास व्यवस्था में मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है। वे अमूर्त आदर्श या सामान्यीकृत विश्वास हैं, जो किसी विशिष्ट अभिवृत्ति से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़े हैं। सत्यता, सुन्दरता, स्वतंत्रता, संतोष, दायित्व, कर्त्तव्य और व्यवस्था कुछ उदाहरण हैं।
प्रश्न 5. नेतृत्व के प्रति प्रमुख दृष्टिकोणों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – सनल्सू ने कहा, “नेता को समूह या संगठन को ऐसी स्थिति में अवश्य रखना होगा, जहां सफलता के लिए कार्य क्षमता का सर्वोच्च स्तर होगा।” प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।यानी कुशल नेतृत्व के दो प्रमुख पहलू हैं: कार्यक्षमता का सर्वोच्च स्तर और प्रतिबद्धता। इतिहास कुशल नेतृत्व के बारे में साक्षी है, और कई महान पुरुषों और महान नारियों के उदाहरणों ने हमारे मन पर अमिट छाप छोड़ी है—इन्हीं की प्रेरणा से व्यक्ति का नेतृत्व दृष्टिकोण बनता है। प्रत्येक दृष्टिकोण ने नेतृत्व की अलग-अलग विशेषताएं बताई हैं। इनमें प्रमुख दृष्टिकोणों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-
(i) महापुरुषों का दृष्टिकोण – प्रारंभ में, आदर्श नेतृत्व गुणों को जानने और समझने के लिए महापुरुषों और महान महिलाओं के व्यक्तित्व पर ध्यान दिया गया। यह विचार है कि प्रभावशाली नेता बनने के लिए अपने जीवन का अध्ययन और अनुकरण करना आवश्यक है। महान इतिहास पुरुषों में महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, अकबर महान, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, जनरल करिअप्पा, मानेक शाह, जयंती नाथ चौधरी, होमी जहांगीर भाभा, तिलक, सरदार पटेल, नेपोलियन और लेनिन शामिल हैं। विभिन्न व्यक्तित्व लक्षण अनुकरणीय हो गए। बिल गेट्स, बिड़ला, टाटा और अम्बानी जैसे व्यापारिक नेता भी इसी तरह का विचार मानते हैं।
(ii) शीलगुणों का दृष्टिकोण – इस दृष्टिकोण में व्यक्तित्व विशिष्ट नहीं है, बल्कि कई गुणों की एक सूची है। यह सहमति है कि प्रभावकारी नेता में ये गुण होने चाहिए। इसलिए, इस दृष्टिकोण को सिद्धांतों की एक श्रृंखला कह सकते हैं। यह व्यक्तिगत, सामाजिक और बुद्धिमान गुणों के आधार पर नेताओं को अन्य नेताओं से अलग करता है। अध्ययन के अनुसार, निम्नलिखित गुण हो सकते हैं
• प्रभावशाली टीम बनाने की इच्छा।
• सुनने की क्षमता।
• स्वयं निर्णय लेने की क्षमता ।
• अच्छे लोगों को साथ रखने की क्षमता ।
• अपने इर्द-गिर्द अच्छे लोगों को जुटाये रखने की क्षमता ।
गुण दृष्टिकोण पर बहुत से अध्ययन किए गए हैं। हालाँकि, परिस्थितियों, नेताओं और समर्थकों में बदलाव के कारण नेतृत्व एक गतिशील प्रक्रिया है। याद रखें कि गुण सर्वव्यापी नहीं हैं और अपरिवर्तनीय नहीं हैं। इनमें नेतृत्व की सफलता की संभावना नहीं होती, बल्कि सफलता की संभावना होती है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति बहुत अलग हो सकता है।
अभिवृत्ति दृष्टिकोण – यह दृष्टिकोण नेतृत्व व्यवहार के व्यक्तिगत गुणों पर आधारित है। पूर्व की खोजों में नेतृत्व व्यवहार के दो स्पष्ट आयाम निर्धारित किए गए हैं-
(i) पोषण करना
(ii) पहल करना
(i) आमंत्रित करना, सम्मान देना, आत्मसम्मान की रक्षा करना, आपसी विश्वास बनाना और समूह के सदस्यों के प्रति सरोकार भाव व्यक्त करना पोषक व्यवहार है।
(ii) पहल व्यवहार: समूह को संगठित करना, संबंधों को परिभाषित करना, कार्य निर्धारित करना, उसे पूरा करने की विधि निर्धारित करना, समय-सीमा का पालन करना और गुणवत्ता बनाए रखते हुए उत्तरदायित्व की सीमा निर्धारित करना।
स्पष्ट है कि पोषण या पहल में उच्च पद पर रहने वाले नेताओं की तुलना में उनके अधीनस्थों द्वारा उच्च कार्यक्षमता और संतुष्टि हासिल करने पर अधिक जोर दिया जाता है। लेकिन इसके परिणाम अच्छे नहीं हैं।
सेना के एक ड्रिल प्रशिक्षक, उदाहरण के लिए, पहल में उच्च पद पर है। वह बूट कैम्प में आदेश देता है और सुबह से शाम तक रंगरूटों की गतिविधियों को देखता है। उन्हें बहुत कम समय में सीखना है और सेवा में अधिकार पर बल दिया जाता है, इसलिए रंगरूट आदेश का पालन व्यक्तिगत हितों और आवश्यकताओं के लिए करते हैं।
प्रश्न 6. परिस्थितिपरक नेतृत्व क्या है ? इसके प्रमुख कार्य भी बताइए |
उत्तर – यह कहा जाता है कि नेता, विशेषकर कुशल नेता, समय और बदलती आवश्यकताओं को समझते हुए अपने व्यवहार को बदलने में सक्षम है और बहुमुखी प्रतिभा और लचीले रुख का प्रदर्शन करता है। स्थितिपरक उपागमों में नेतृत्व के लिए प्रेक्षित व्यवहार पर बल दिया जाता है क्योंकि यानी नेता और उसके समर्थकों का रुख परिस्थिति के अनुसार बदल जाता है। निम्नलिखित घटकों से स्थिति का स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है-
1. नेता – सदस्य संबंध – अधीनस्थों का नेता पर भरोसा, विश्वास और सम्मान |
2. कार्य-रचना – विभिन्न कार्य किस हद तक सुनिश्चित प्रक्रिया वाले हैं।
3. पद अधिकार – नियोजन, पद से हटाने, अनुशासन, पदोन्नति और वेतन बढ़ाने, जैसे अधिकार – विषयक परिवर्तनों पर नेता के नियंत्रण की मात्रा |
अनुभव बताता है कि कार्योन्मुखी नेता दोनों तरह की परिस्थितियों में बेहतर काम कर सकते हैं। ऐसे नेता सर्वाधिक प्रभावशाली रहने की प्रबल संभावना होती है, जबकि संबंध-उन्मुखी नेता संतुलित परिस्थितियों में अधिक सफल होता है। विपरीत परिस्थितियों में संबंध का समीकरण बिगड़ने की संभावना भी एक बाधा बन सकती है।
स्थिति के अनुरूप नेता को बदलना (जैसे प्रांतीय सरकारों में अक्सर होता है) या स्थिति के अनुरूप नेता को बदलना (जैसे अक्सर केंद्रीय सरकारों में होता है)। सार रूप में हम कह सकते हैं कि नेतृत्व निम्नलिखित कार्य करता है-
(i) कार्य को सार्थक बनाना और सहायता प्रदान करना ।
(ii) सही चीजों पर किए जाने वाले सही कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना ।
(iii) संगठन के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए परिवेश को संरचित करना ।
(iv) अन्य लोगों से अपनी इच्छानुसार अपेक्षित कार्य करना । (v) लोगों को स्वेच्छा से कार्य निष्पादन के लिए प्रेरित करना।
(vi) दूसरे लोगों को जिम्मेदारी निभाने के लिए समर्थ बनाना।
(vii) लोगों को इस बात का अधिकार देना कि वे सही सोच के अनुरूप कार्य कर सकें।
(viii) लोगों की इस बात में सहायता करना कि वे स्वयं को निर्भय व दृढ़ विश्वास वाला महसूस करें।
प्रश्न 7. नेतृत्व के आधार पर नेता के विभिन्न प्रकार बताइए।
उत्तर – नेतृत्व को वर्गीकृत करने के कई तरीके हैं, इस आधार पर नेता भी कई प्रकार के होते हैं। नेता के निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं-
(i) दृष्टि सम्पन्न होना – जिस नेता के पास विस्तृत लक्ष्य हों वह नेता दूरदर्शी है। जो स्वाभाविक रूप से अर्थव्यवस्था, राजनीति, विधान और उद्योग और विकास में भी रुचि रखता है। ऐसा नेता जिसके कार्यों में लक्ष्य, आदर्श और मूल्यों की घोषणा और स्थापना की भावना दिखाई देती हो दृष्टि सम्पन्न नेता को संगठन का रूपांतरण और निर्माण करने की क्षमता की उम्मीद है।
उदाहरणार्थ, किसी संस्थान का निदेशक, वरिष्ठ कर्मचारी, संस्था अध्यक्ष, विद्यालय प्रमुख और वरिष्ठ भागीदार आदि व्यक्तित्व दृष्टि सम्पन्न नेतृत्व प्रदान करने के आशय से दृष्टि सम्पन्न नेता ही कहे जाएंगे।
(ii) एकीकरण नेता – ऐसे नेता के लक्ष्य मध्यम अवधि के हैं। यह अन्तर्मुखी है और मुख्य रूप से संगठन पर केंद्रित है। ऐसे नेता के लिए भी संगठन की प्रणालियों और प्रक्रियाओं का विकास करना महत्वपूर्ण है। इसलिए, वह संगठन में परस्पर विरोधी हितों के बीच समझौता करता है, या सुलह-सफाई करता है। ऐसे नेता एक मजबूत संस्कृति का विकास और नेतृत्व करते हैं। कॉरपोरेट ज्ञान का उपयोग, उसे नया रूप देने और प्रतिभाशाली लोगों की भर्ती करके समूचे संगठन का प्रभावकारी संचालन सुनिश्चित करता है।
(iii) अपेक्षाएं पूरी करने वाला नेता – ऐसे नेता नहीं रहते। यह जानकार विशेषज्ञ है और ग्राहक सेवा के विचारों पर केंद्रित है। समय पर परिणाम देकर ग्राहक को खुश करता है। ऐसे नेता ही लोगों की क्षमता को उजागर करते हैं और कम से कम साधनों का उपयोग करके निरंतर सुधार लाते हैं।
(iv) संचालनकारी नेता – इस श्रेणी में आने वाले नेताओं को संचालन की जिम्मेदारी मिलती है। यह नेता अपने संगठन के माध्यम से कर्मचारियों को उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने (जैसे वेतन बढ़ाना, पदोन्नति देना, कार्य संतुष्टि में सुधार लाना या सम्मान देना) के बदले में कोई अपेक्षित काम करते हैं। इन नेताओं के पास स्पष्ट और स्पष्ट उद्देश्य हैं। ये कर्मचारियों की मांगों को समझते हुए समुचित पुरस्कारों को चुनते हैं।
(v) परिवर्तनकारी नेता – असल में, परिवर्तनकारी नेतृत्व एक प्रक्रिया है, जिसमें कर्मचारियों को साझा मूल्यों और लक्ष्यों के संदर्भ में प्रतिबद्ध करना होता है। यह प्रक्रिया परिवर्तन से संबंधित है। होता है कि इसमें नेताओं के बीच परस्पर विश्वास का संबंध प्रभावी होता है। इस कोटि का नेतृत्व निम्नलिखित है:-
(क) आदर्शवादी प्रभाव – इसमें एक स्पष्ट उद्देश्य और लक्ष्य है। ऐसे नेता विश्वास और सम्मान पा सकते हैं। वे आधार बनाते हैं, जिससे वे अपने अधीनस्थों से अधिक प्रयास या काम करने में सक्षम होते हैं।
(ख) व्यक्तिगत देखभाल – इसके अंतर्गत अधीनस्थों के व्यक्तिगत विकास की संभावना और उनकी जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है। इसमें प्रत्यायोजन, प्रशिक्षण और रचनात्मक फीडबैक शामिल है।
(ग) बौद्धिक उद्दीपन – इसमें कार्यों को पूरा करने के लिए नए विचार और तरीके लाए जाते हैं। श्रीमती किरण बेदी ने तिहाड़ जेल के कैदियों के साथ किया गया काम परिवर्तनकारी नेतृत्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उनके अनुयायी और संस्था दोनों बदल गए।
(vi) करिश्माई नेता – हमने अभी तक कई प्रकार के नेताओं के बारे में पढ़ा है, लेकिन कभी-कभी हम किसी नेता से अभिभूत हो जाते हैं और उसका अंधानुकरण करने लगते हैं। नेता का निजी आकर्षण प्रभावित करता है। ऐसे नेताओं को प्रभावशाली नेता कहा जाता है। महात्मा गांधी भी एक अद्भुत नेता थे। नेताओं को जनता के साथ काम करना चाहिए। उनमें भावनात्मक आकर्षण है। महान नेता स्वामी विवेकानन्द भी थे। करिश्माई नेताओं में निम्नलिखित गुण हैं:-
• अनुगामी अपने नेता को निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं ।
• अनुगामी अपने नेता का अनुसरण स्वेच्छा से करते हैं।
• समर्थकों और नेता की मान्यताएं एक जैसी होती हैं।
• नेता के सिद्धांतों की सच्चाई पर समर्थकों का भरोसा होता है।
प्रश्न 8. नेतृत्व की लोकतांत्रिक और निरंकुश शैली पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर- वास्तव में, लोकतंत्र लोक सम्मति या सहमति से चलने वाला तंत्र है. एक नेता जो इस विचारधारा पर विश्वास करता है, अपने समूह के सदस्यों को निर्णय लेने के लिए प्रेरित करता है और खुद को समूह की कोशिशों का समन्वयक समझता है। नेतृत्व की एक स्वेच्छाचारी या एकतंत्रीय प्रणाली इसके विपरीत है। यहां, एक तंत्रीय का अर्थ है कि पूरे समूह पर एक व्यक्ति के विवेक से लिए गए निर्णय लागू होते हैं। ऐसे नेतृत्व व्यवहार में, नेता समूह के सदस्यों से आशा करता है कि वे बिना किसी विरोध या बहस किए उसके निर्णय को मानें और फैसले पर अमल करें।
इन दोनों शैलियों के अलावा नेतृत्व व्यवहार एक तीसरी श्रेणी भी है। यह निरंकुश नेतृत्व शैली है। इस शैली अक्सर समूह की पहल पर उनसे बात करता है और न तो सभी समूह मामलों में निष्क्रिय रहता है।
यहाँ ध्यातव्य है कि ये तीन शैलियां अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। विभिन्न परिस्थितियों में नेतृत्व करने के अलग-अलग तरीके भी हैं। यह भी एक बात है कि नेताओं की अलग-अलग श्रेणियों में समानताएं हो सकती हैं।
जैसा कि हम जानते हैं, आज के समाज में कई राजनीतिक और राजनीतिक नेता हैं। हम सभी में आने वाले कल का नेता है। विभिन्न सिद्धांतों और विचारधाराओं का नेतृत्व करने की क्षमता का उपयोग करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, क्रिकेट में अच्छे बल्लेबाज और गेंदबाजों को हर कोई पसंद करता है, लेकिन एक टीम के रूप में जीतने का सुख अलग है। बल्लेबाजों को शतक या दोहरा शतक बनाना चाहिए। ऐसे ही गेंदबाज 4-5 विकेट चटका लेते हैं, लेकिन टीम पराजित होने पर सारा प्रयास बेकार जाता है।
राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्रों और संगठनों पर भी यही लागू होता है। नेताओं से भी अपेक्षा की जाती है कि वे समाज-व्यापार में होने वाली विविधताओं और उतार-चढ़ाव से भी परिचित रहें। साथ ही समाज के संदर्भ में पिछड़े अल्पसंख्यक, महिला वर्ग और सर्वहाराओं की सुविधाओं, समाज दशा और आर्थिक स्थिति को सुधारने वाले कदम उठाए।
भविष्य लचीलेपन और नवीनता का होगा। इसमें बदलते व्यापारिक और सांस्कृतिक वातावरणों को सार्थक ढंग से विकसित करने के लिए उनके अनुकूलन पर बल देना होगा।
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