NIOS Class 10 Psychology Chapter 12 प्रौढ़ता और बढ़ती आयु

प्रौढ़ता और बढ़ती आयु के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1. प्रौढ़ावस्था क्या है? आरंभिक प्रौढ़ावस्था अवधि की प्रमुख विशेषताएं बताइए |
उत्तर- जिसकी पूरी वृद्धि हो चुकी हो, प्रवृद्ध यानी तीस से पचास वर्ष के बीच की उम्र का व्यक्ति प्रौढ़ कहलाता है. यह शब्द आम तौर पर कोशीय अर्थ पर आधारित है। किंतु मनोवैज्ञानिकों ने मानव विकास क्रम को जिन अवस्थाओं में विभाजित किया है, उस आधार पर वयस्कता मानव विकास के प्रौढ़ावस्था चरण से संबंधित है। इसलिए किशोरावस्था के बाद के विकास चरणों को दो दशकों से लेकर मृत्युपर्यन्त एक विस्तृत फलक के रूप में देखा गया है।

वास्तव में, प्रौढ़ावस्था में बौद्धिक विकास होता है। उस वयस्क व्यक्ति से समाज की अपेक्षा है कि वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाएगा। यही कारण है कि किशोरावस्था ( 11 से 19 वर्ष) के बाद के जीवनकाल को प्रौढ़ावस्था कहा जाता है, जो बुद्धि, विवेक, निर्णय और अनुभवों की दृष्टि से परिपक्व होता है।
मानव व्यवहार और क्षमताएं जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, निरंतर बदलते रहते हैं। ऐसा जैविक वृद्धि से नहीं होता, बल्कि व्यक्ति की समझ और पर्यावरण के साथ उसके विनिमय से होता है।

भारतीय परंपरा में प्रौढ़ावस्था की अवधि का अर्थ गृहस्थाश्रम से है, जिसमें व्यक्ति सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है और परिवार और व्यवसाय में प्रवेश करके जिम्मेदारियां निभाता है।
प्रौढ़ावस्था को निम्नलिखित उप- अवधियों में विभक्त किया जा सकता है-
(क) आरंभिक प्रौढ़ावस्था
(ख) मध्य प्रौढ़ावस्था
(ग) उत्तर – प्रौढ़ावस्था

आरंभिक प्रौढ़ावस्था – किशोरावस्था की समाप्ति के बाद वयस्क व्यक्ति उम्र के जिस चरण में प्रवेश करता है उसे आरंभिक प्रौढ़ावस्था कहा जाता है। वह एक स्वतंत्र युवा है इस उम्र में व्यक्ति अपने अभिभावक के परिवार पर अधिक पैसे नहीं देता। इस समय, कार्यक्षेत्र का चुनाव एक महत्वपूर्ण विकासात्मक कदम है। युवक-युवतियां अपनी रुचि के क्षेत्रों को अपनाते हैं। साथ ही, युवा लोग पारिवारिक जीवन शुरू करने और सुंदर घर बनाने की कोशिश करते हैं। वे कई सामाजिक समस्याओं को जानते हैं। हम अपने व्यावसायिक मित्रों के साथ आत्मीय संबंध बनाते हैं। व्यक्ति के दायित्व व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर जिम्मेदारी की मांग करते हैं, यानी व्यक्ति अपने आप के प्रति भी जवाबदेह है।

आरंभिक प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति दो बड़े संकटों से गुजरता है। विवाह करके गृहस्थ जीवन निर्वाह करने की चुनौती तथा वित्तीय स्वतंत्रता के लिए उपयुक्त आजीविका इसलिए, आरंभिक प्रौढ़ावस्था में दो आम संकटपूर्ण समस्याएं हैं: बेरोजगारी और वैवाहिक विसंगति।
इरिक्सन ने कहा कि यह समय घनिष्ठता बनाम अलगाव के संकट से ग्रस्त होता है, इसलिए एक युवा प्रौढ़ को विवाह के मामले में बहुत घनिष्ठ और विश्वसनीय संबंध बनाने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता, तो पति-पत्नी सामाजिक और भावनात्मक रूप से एकाकी हो जाते हैं।

ज्यादातर युवा लोग अपने जीवन लक्ष्य का चित्र बनाते हैं और एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं। ऐसे सपने ही युवा लोगों को लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। वास्तव में, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की स्थापना, व्यावसायिक और वैवाहिक रुचि तथा आर्थिक और व्यावसायिक रुचि पहले से ही बहुत महत्वपूर्ण हैं। तीस वर्ष की आयु तक आते-आते लोग अक्सर अपने विकल्पों का पुनर्मूल्यांकन करते हैं, साथ ही अपने सामाजिक संबंधों में कुछ विशिष्ट परिवर्तन लाने की इच्छा भी रखते हैं। इन घटनाओं को आयु तीस संक्रमण कहा जाता है।

आरंभिक प्रौढ़ावस्था की कुछ प्रमुख विशेषताएं
(i) कैरियर का विकल्प
(ii) पारिवारिक जीवन का आरंभ
(iii) हम उम्र (समवयस्क) लोगों से घनिष्ठ संबंध स्थापित करना
(iv) समाज के प्रति जागरूकता ।

प्रश्न 2. मध्य प्रौढ़ावस्था क्या है ? इस अवधि की कुछ विशेषताएं बताइए।
उत्तर – मध्य आयु लगभग चौथे या पांचवे दशक में आती है। यह मध्यम आयु का व्यक्ति कार्यक्षमता, परिपक्वता, उत्तरदायित्व, उचित जन व्यवहार और स्थिरता से प्रसिद्ध है। वास्तव में, यह वह समय है जब व्यक्ति अपने जीवन की मध्याह्न स्थिति में आ जाता है और अपने काम की सफलता, परिवार और समाज से मिली संतुष्टि का आनन्द लेना चाहता है।

इस आयु तक, व्यक्ति की संतानें किशोरावस्था पार कर जिम्मेदार प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने के लिए तैयार हो जाती हैं। अब व्यक्ति अपने बच्चों का सुनहरा भविष्य चाहता है। अब उसका ध्यान अपने स्वास्थ्य, बच्चों के भविष्य, बूढ़े अभिभावकों, खाली समय का उपयोग और बुढ़ापे की योजना पर है। स्त्रियों के लिए मध्य प्रौढ़ावस्था एक अलग संदर्भ है। महिलाएं 45 से 50 वर्ष की आयु के बीच रजोनिवृत्ति के दौर से गुजरती हैं। इस स्थिति में एक महिला में हॉर्मोनल बदलाव के कारण हाथ-पैर, कमर दर्द, कार्यक्षमता की कमी और चेहरे के लावण्य की जगह ढलाव के लक्षण दिखाई देते हैं। इस समय पुरुष अपने स्वास्थ, शक्ति और यौन क्षमता पर अधिक विचार करने लगते हैं।

मध्य प्रौढ़ावस्था को रचनात्मकता और सामाजिक योगदान की अवधि भी कहा जा सकता है। यह अक्सर देखा गया है कि वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार आदि अपने सर्वश्रेष्ठ काम इस समय कर सकते हैं। इरिक्सन ने मध्य प्रौढ़ावस्था को एक प्रकार का संकट कहा है। इसमें आत्मीयता और उत्पादकता मिलती है। यही कारण है कि व्यक्ति को इस अवधि को सार्थक योगदान से भरना चाहिए. नहीं तो वह सिर्फ अपनी आवश्यकताओं में व्यस्त रह जाएगा।

चौथे दशक की अशांति भी मध्य प्रौढ़ावस्था का समय है। इस आयु तक आते-आते लोग अपनी मृत्यु के प्रति अधिक जागरूक होते हैं और स्वयं को बूढ़ा समझने लगते हैं। इससे वे भावनात्मक रूप से अस्थिर हो जाते हैं। वे अपने काम का मूल्यांकन करने लगते हैं। क्रमानुसार, वे अपने जीवन की समीक्षा करने लगते हैं। इसका परिणाम बहुत बुरा होता है क्योंकि इससे नौकरी बदलनी या शादी छोड़नी पड़ती है। नौकरी-पेशा लोगों के लिए यह अवधि काफी चुनौती भरी होती है क्योंकि मध्य प्रौढ़ावस्था की समाप्ति पर कार्यक्षेत्र से सेवामुक्ति का समय आता है। ऐसे में नई परिस्थितियों का सामना करने, उनसे समझौता करने और जीवन को पुनः संयोजित करने का बड़ा दबाव होता है।

मध्य प्रौढ़ावस्था की विशेषताएं – मध्य प्रौढ़ावस्था की कुछ विशेषताओं को निम्नवत देखा जा सकता है-
(i) कार्यक्षमता, परिपक्वता, उत्तरदायित्व तथा स्थिरता
(ii) बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना
(iii) वृद्धावस्था के लिए योजना
(iv) स्त्रियों में रजोनिवृत्ति ।

प्रश्न 3. ‘उत्तर प्रौढ़ावस्था (वृद्धावस्था) एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है’ – स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – 60 वर्ष की आयु से उत्तर-प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था शुरू होती है। कार्यक्षेत्र से अधिकांश लोग सेवामुक्त हो जाते हैं। सक्रियता से छुटकारा पाते हैं। वर्तमान आयु के अधिकांश लोग नियमित काम करने से शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की चिंता करने लगते हैं। शायद यही कारण है कि हमारे समाज में वृद्ध लोगों को अक्सर कम क्रियाशील, बौद्धिक रूप से क्षीण, संकीर्ण चित्तवृत्ति वाला और धर्म की ओर अधिक आकर्षित माना जाता है।

इस उम्र में बहुत से लोग अपने जीवनसाथी को खो देते हैं। इसलिए उनकी भावनात्मक असुरक्षा का प्रश्न उठता है। यह स्थिति हर किसी को नहीं होती, लेकिन जीवन संध्या की बढ़ती परछाइयों का भय सताने लगता है। यही कारण है कि 60 वर्ष से अधिक उम्र में भी बहुत से लोग स्व-अनुशासन में ढले हुए अपने जीवन को सक्रिय और स्वस्थ बनाए रखने के लिए प्रातः भ्रमण, व्यायाम, आसन और नियमित जांच करते हैं। वास्तव में, शरीर का अपना नियम है कि जन्म से तीस वर्ष तक उसका ग्राफ ऊपर जाता है और तीस वर्ष के बाद नीचे गिरता है। मृत्यु अनिवार्य है और जीवन यही है।

जिसने भी जन्म लिया है, वह एक दिन इस दुनिया से चला जाएगा। जब मृत्यु निश्चित है, तो फिर वह भयभीत क्यों है? वह कब आएगी? भयमुक्त जीवन जीना चाहिए, क्योंकि कोई रुकावट नहीं होगी। बुढ़ापा वास्तव में मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। हम देखते हैं कि बहुत से लेखकों, राजनेताओं, शिक्षकों तथा योगियों ने बुढ़ापे में भी सक्रिय, उत्पादक और सक्रिय जीवन जीया। अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वृद्धावस्था, जो सभी जिम्मेदारियों से मुक्त जीवन काल है, खुशी से और पूरे उत्साह से जीया जाए। परेशान लोगों को राहत देने के लिए सक्रियता एक प्रभावी उपाय है।

बुढ़ापे में हर व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक ह्रास हो जाना, यह आवश्यक नहीं है। सक्रिय, अनुशासित व तनावमुक्त जीवन-शैली से शरीर व मन को स्वस्थ बनाए रखा जा सकता है, क्योंकि वृद्ध व्यक्ति जीवनानुभवों से परिपुष्ट व ज्ञान तथा बुद्धि की अपार सम्पदा से युक्त होता है । उसका लाभ समाज को देते रहने से ह्रास का आभास ही नहीं होता ।

प्रश्न 4. ‘प्रौढ़ तथा वृद्ध दूसरों पर निर्भर हैं।’ इस मूल धारणा को स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- किसी वृद्ध व्यक्ति को देखने या उससे मिलने पर हमारे मन में कई प्रश्न उठते हैं। हम कहते हैं कि हमारे अभिभावक हमारे व्यवहार से भिन्न हैं। जब हम प्रौढ़ और वृद्ध शब्द सुनते हैं, तो हमारे मन में जो विचार आते हैं, वे हैं जिम्मेदारी, स्थायित्व, बीमारी और विस्मरणशीलता. इसलिए हम अधिक आयु को जीवन के एक चरण के रूप में देखते हैं, जब हम दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं, लेकिन ये मूल धारणाएं हैं।

हम आज भी देखते हैं कि समाज में वृद्धों की संख्या बढ़ती जा रही है और अगले दो दशक में यह संख्या कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा बन जाएगी। हम भी जानते हैं कि प्रौढ़ होना या वृद्ध होना एक जैविक प्रक्रिया है, और इस दौरान शरीर की आंगिक क्रियाओं और संज्ञानात्मक स्थितियों में कमी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। लेकिन यह मनोवैज्ञानिक उपचार भी है-ऐसे कई उदाहरण हैं कि राजनेता, लेखक, कलाकार तथा योगी वृद्धावस्था में भी उत्पादक और सक्रिय जीवन जीते हैं, इसलिए इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि वृद्धावस्था को भी सुखकर और परिपूर्ण बनाया जा सकता है, इसलिए कुछ प्रभावी तरीके अपनाने से वृद्धावस्था में स्वस्थ समायोजन किया जा सकता है।

इसके लिए जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, लचीली प्रवृत्ति, समस्याओं को उम्र के अनुरूप ढाल लेने की प्रवृत्ति, समाधान की दिशा में चिन्तन, सीमा और शक्ति के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण, प्रभावकारी कौशल बनाने के लिए सहज जागरूकता और समस्याओं के निदान के लिए नए तरीकों को अपनाने के लिए तैयार रहना शामिल हैं। इसके आधार पर, बुढ़ापे में व्यक्ति दूसरों पर बोझ बन जाता है, यह धारणा बलपूर्वक खारिज की जा सकती है।

प्रश्न 5. वृद्धों के महत्त्व को किस रूप में दर्शाया गया
उत्तर – हभारत में संयुक्त परिवार व्यवस्था बहुत पुरानी है। इसलिए परिवार में बड़े-बुजुर्गों को ज्ञान और अनुभव का अथाह स्रोत मानते हुए समान सम्मान का पात्र माना जाता रहा। जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है, उनके साथ रहने और उन्हें सम्मान देने से व्यक्ति का बहुआयामी विकास होता है-
अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशोबलम्

जो नित्य वृद्धों की सेवा करते हैं तथा उनके प्रति अभिवादनशील रहते हैं। उनकी आयु, विद्या, यश व बल की बहुआयामी वृद्धि होती है। लेकिन आज बढ़ते पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, एकल परिवार के चलन और बढ़ते आर्थिक दबाव के कारण पैदा पारिवारिक विघटन के नए एकल परिवारों को बुजुर्गों के द्वारा परिवार को मिलने वाली सांस्कृतिक विरासत से वंचित कर दिया है और नई पीढ़ी नए मूल्यों से अपरिचित होती जा रही है। यह चिंता का कारण है। लेकिन वृद्धों के प्रति अधिसंख्य लोग आज भी उतने सफेद नहीं हुए। भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं की यह धरोहर आज भी अपना मूल्य रखती है।

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