प्रश्न 4. किशोरावस्था पर पालन-शैली के प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – किशोरावस्था पर पालन शैली का बहुत प्रभाव पड़ता है, क्योंकि हम जानते हैं कि बालक की पहली पाठशाला घर ही होता है और संतोष या असंतोष का भाव भी बालक के मन पर उसके माता-पिता के व्यवहार से जुड़ा होता है। प्रश्न यह नहीं है कि माता-पिता बच्चे की कितनी इच्छाएं पूरी करते हैं, सवाल यह भी है कि वे कैसे उससे बरतते हैं। इसे पालन – शैली की तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करके देखा जा सकता है-
(i) अनुमोदनात्मक,
(ii) निरंकुश,
(iii) प्रभुत्ववादी
(i) अनुमोदनात्मक शैली – जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इसमें बच्चे की क्रियाओं का अनुमोदन महत्वपूर्ण होता है। ऐसे बच्चे स्वतंत्र हो जाते हैं, चाहे वह जो भी करे। वे बड़ों का सम्मान नहीं करते। जल्दी आवेश में आ जाते हैं और अपने नियंत्रण खो देते हैं।
(ii) निरंकुश – ऐसे बच्चे जिनसे केवल आज्ञापालन की अपेक्षा की जाए, वे किशोरावस्था में अपेक्षाकृत अधिक आक्रामक हो जाते हैं। मूड के अनुरूप कार्यशैली का विकास कर लेते हैं तथा उनमें सम्प्रेषण कौशल कम झलकता है।
(iii) प्रभुत्ववादी – यह शैली लगभग संतुलित है। इसमें अधिकतर माता-पिता बच्चों को सीमा समझने और कर्तव्यों का पालन करने का अवसर देते हैं। उनके काम की प्रशंसा करते रहते हैं। इस प्रकार किशोर अधिक आत्मविश्वास, नियंत्रण और सामाजिक क्षमता विकसित करते हैं। उसमें जिम्मेदार नागरिक के गुणों को विकसित करने के लिए पर्याप्त अवकाश होता है, साथ ही संचार कौशल काफी मजबूत होता है।
प्रश्न 5. प्रभावी लालन-पालन के स्वरूप को बताइए ।
उत्तर – प्रभावी लालन-पालन – बच्चे और माता-पिता के प्रभावी संबंध के मूल कारकों के विषय में निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं-
(i) एक-दूसरे का आदर करना – बच्चों को मारना या नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को काम करने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करें।
(ii) मनोरंजन बांटना – बच्चे और माता-पिता को चाहिए कि थोड़ा-सा समय साथ गुजारने की चेष्टा करें।
(iii) प्रोत्साहन – जिन बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता है, वे आत्मविश्वासी होते हैं। बच्चों की प्रगति को स्वीकार करना चाहिए तथा प्रशंसा करना चाहिए।
प्रश्न 6. किशोरावस्था में अस्मिता का संकट पर टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर – ‘स्व’ की पहचान और अस्मिता का संकट होगा। “स्व” की प्रतिष्ठा का संकट और युवावस्था में यह संकट एक ऐसी चुनौती के रूप में सामने आता है, जो आंतरिक होकर भी बाह्य है। भीतर से भी बाहर है। व्यक्ति के मन में बार-बार एक साधारण प्रश्न उठता है: हम कौन हैं? हमारे मूल्य क्या हैं? वस्तुत: बालक इस संदर्भ में निर्द्वन्द्व है। जन्म से 11 वर्ष की आयु तक उसे अस्मिता का बोध या संकट नहीं होता। यह बोध नवयुवक वय में आता है। वह बच्चों से स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगता है और सामाजिक मूल्यों, विवेक, बुद्धि और विवेक में वयस्कों से बहुत पीछे होता है। भी सीमित अनुभव है इसलिए कहा जाता है कि किशोरावस्था मन के लिए एक मुश्किल और संघर्षपूर्ण समय है। और अस्मिता अपनी विशेषताओं और कौशल को जानने से संबंधित है।
हम भी जानते हैं कि बाल्यकाल में माता-पिता के विचारों का प्रभाव बच्चे पर होता है। वे उसके विचारों को दिशा देते हैं और किशोरावस्था स्वयं के मूल्यों का विकास करने का समय है। यही कारण है कि परिवार और समाज के बड़े (वयस्क) सदस्यों के साथ कभी-कभी द्वन्द्व या बहस होती है। इस द्वन्द्व के कारण किशोरों में आत्मविश्वास और असुरक्षा की भावना के साथ-साथ टकराहट भी पैदा होती है, जिससे एक तरह से नई, अपरिपक्व अस्मिता का विचार भ्रम के रूप में प्रकट होता है। माता-पिता शिक्षकों और सगे-संबंधियों से अपेक्षा करते हैं कि वे अपने बच्चों को भ्रम में न डालें। इसी से किशोर अपनी आवश्यकताओं को समझकर लक्ष्यों को हासिल करने में उनकी मदद कर सकेगा, जिससे वे अपने आप को पूरा कर सकें और अपने आप को सही साबित कर सकें।
वयस्क होने तक, अस्मिता का यह किशोरावस्था का संकट स्वयं ही खत्म हो जाता है। लेकिन इस समय के कठोर अनुभव अक्सर जीवन भर के लिए मन में दर्ज होते हैं। कुछ वयस्क जीवन की कठिनाइयों से परेशान रहते हैं। वस्तुत: अस्मिता की समस्या हर समाज में अलग होती है। भारत के परम्परागत संयुक्त परिवारों में एक वयस्क अपने परिवार पर काफी समय तक निर्भर रह सकता है, लेकिन पश्चिम में संयुक्त परिवार की अवधारणा ऐसी नहीं है। इसलिए शायद वहां के किशोरों को वयस्क जीवन में पदार्पण करते समय पूरा समय नहीं मिलता।
किशोर कल्पनाशीलता और अमूर्त कल्पना के कारण जल्दी परिपक्व हो जाते हैं, लेकिन उसके विचार वैज्ञानिक और तर्कसंगत हो जाते हैं जब वे वयस्क हो जाते हैं। किशोर अक्सर बहुत रचनात्मक होते हैं, कुछ तो होते भी हैं। वे अपनी अस्मिता के प्रति बहुत निश्चित नहीं होते, इसलिए तत्कालीन रूप से उनके विचार अपरिपक्व लगते हैं। किशोर साहसी होते हैं, लेकिन संज्ञानात्मक विकास में वे वयस्कों की तरह सोचने तक जल्दी पहुंच जाते हैं। यही कारण है कि किशोरावस्था में अस्मिता का संकट अपरिपक्वता और अस्मिता के बारे में स्पष्ट धारणा के अभाव से उत्पन्न होता है, जो स्वतः समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 7. किशोरों में पीढ़ी – अंतराल की समस्या को समझाइए ।
उत्तर – यह अक्सर देखा गया है कि 11-12 वर्ष की आयु में माता-पिता, बंधु-बान्धवों और पड़ोसियों की देख-रेख में पलने-बढ़ने वाले बच्चे अकस्मात ही मानसिक दबाव महसूस करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, टीवी, सिनेमा, खेल आदि के बारे में किशोर और उनके माता-पिता के विचार अक्सर नहीं मिलते। माता-पिता किशोर के बदलते रुख को सहज रूप से नहीं मानते (जैसे बाल्यावस्था में होता है), बल्कि वे अधिक टोका-टाकी करने लगते हैं।
शायद इसीलिए संतान के संदर्भ में संस्कृत में एक उक्त अक्सर दी जाती है
लाडयेत् पंचवर्षाणि, दशवर्षाणि ताडयेत
प्राप्तु षोडशे वर्षे पुत्र मित्र वदाचरेत ।
यही कारण है कि बालक को पांच वर्ष तक दुलार करना चाहिए। दस वर्ष तक दोषियों को ताड़ना-डांटना-डपटना चाहिए, लेकिन 16 वर्ष की आयु होने पर किशोर की तरह व्यवहार करना चाहिए। इसलिए उसके साथ संभलकर व्यवहार करना चाहिए। लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता। किशोर अपनी बढ़ती वय और बदलती दृष्टि के कारण अपने में बदलाव महसूस करता है, इसलिए वह माता-पिता और अन्य लोगों से अपने को परिपक्व समझते हुए विशिष्ट व्यवहार की अपेक्षा करता है। लेकिन माता-पिता और उनके आसपास के लोग उतनी जल्दी नहीं बदलते; इसे पीढ़ी का अंतराल कहा जाता है, जिसमें माता-पिता भी बच्चे के बदलते वयक्रम के अनुरूप नहीं बदल पाते हैं।
“पीढ़ी का अंतराल” वास्तव में माता-पिता और किशोर पीढ़ी के विचारों, रुचि और अभिवृत्तियों में अंतर है। सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के कारण किशोर पीढ़ी में पढ़ाई भी बढ़ती है। इसमें घर के नियम, अभिभावकों की पढ़ाई के प्रति अभिवृत्ति और असामाजिक व्यवहार (वर्तमान में बदलते हुए सामाजिक व्यवहार) के बीच का अंतर दिखाया गया है। टकराहट के बिंदु और उनके प्रति दृष्टिकोणगत बदले हुए विचार समाज में बदलाव को इंगित करते हैं, जो स्थायी होता है, और पुरानी मानसिकताओं के खिलाफ नए बदलते विचारों के पक्ष में होता है।
किशोरावस्था के मध्य तक आते-आते माता-पिता की प्रतिक्रिया भी उतनी कठोर नहीं रह पाती, तो किशोरों में भी घर के साथ संबंध सुधरने लगते हैं। वास्तव में, बदलते परिप्रेक्ष्य में पुराने और नए मूल्यों के बीच एक समझौता होने लगता है। किशोर उतने उत्तेजित नहीं होते, न माता-पिता। स्थिति को सही ढंग से देखने में यह ठहराव मदद करता है। जहां यह समझ या समझौता नहीं होता, दोनों पीढ़ियां व्यक्तित्व, मन और निराशा की शिकार होती हैं। संबंधों में सुधार, दोनों पक्षों से, खुशी लाता है, लेकिन जड़ता दुख लाती है। वस्तुतः बाल्यावस्था से वयस्क होने के बीच की आयु (किशोरावस्था) में कुछ प्रमुख समस्याएं निम्नवत हैं-
(i) व्यक्तिगत
(ii) सामाजिक
(iii) शैक्षिक
(iv) कार्य व कार्यक्षेत्र संबंधी
इनमें निर्देशन व परामर्श का बहुत बड़ा योगदान होता है। व्यक्तिगत व सामाजिक परामर्श स्वयं से संबंधित समस्याओं के निराकरण में सहायक होते हैं।
प्रश्न 8. किशोर अपने संवेगों का प्रदर्शन किस प्रकार करते हैं?
उत्तर – किशोरावस्था के दौरान किशोरों के बौद्धिक विकास में उल्लेखनीय परिवर्तन होता है। इन्हें अध्ययन की दृष्टि से निम्न शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है-
चिन्तन प्रक्रिया के माध्यम से – इसके अंतर्गत किशोर कई कारकों को एक साथ जोड़कर समस्या का समाधान करके, एक कारक का दूसरे कारक पर प्रभाव देखकर तथा संभाव्यता के आधार पर कारकों को जोड़कर या अलग करते हुए अपने बौद्धिक स्तर का प्रदर्शन करते हैं।
भावनात्मकता के द्वारा – नई सामाजिक स्थिति, नए व्यवहार और नई सामाजिक अपेक्षाओं का सामना करते हुए उनमें असुरक्षा की भावना पैदा होने लगती है और ऐसे में तत्काल क्रिया का आवेश भी चेहरे पर, क्रियाकलाप के रूप में झलक उठता है ।
शरीर के प्रति धारणा द्वारा – किशोरावस्था में शारीरिक रूप से तीव्र परिवर्तन होने लगते हैं। इससे उनमें शरीर के प्रति जागरूकता और आकर्षण बढ़ता है, जो खुशी, अवसाद, गौरव, शर्म आदि के रूप में प्रकट होता है। किशोरावस्था में अभिवृत्ति, रुचि और अंतर्वैयक्तिक संबंधों के कारण सामाजिक रुचि में बहुत बदलाव होता है, इसलिए वे दोस्तों के चुनाव और समूह के साथ अपनी पहचान बनाने में नए सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं। परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ी है। इस सबके बावजूद, चिड़चिड़ापन, भावनात्मक अपरिपक्वता, आत्मकेंद्रितता और परिवार के साथ असंतुष्ट संबंध विकसित होते हैं। किशोर अपने व्यवहारों से इन परिस्थितियों को व्यक्त करते हैं।
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