NIOS Class 10 Psychology Chapter 10 बाल्यकाल
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NIOS Class 10 Psychology Chapter10 Solution – बाल्यकाल
प्रश्न 1. प्रारम्भिक बाल्यकाल में शारीरिक विकास के मुख्य लक्षणों का विवरण दीजिए।
उत्तर- मनुष्य के जन्म से मृत्युपर्यन्त जीवन यात्रा में शारीरिक विकास की दर पर विचार करें, तो शिशुओं की शारीरिक वृद्धि बहुत तेजी से होती है। कद लगभग एक-तिहाई से अधिक हो जाता है। भार भी तीन गुना बढ़ जाता है। हम जानते हैं कि नवजात शिशु जैविक रूप से जीवन के लिए कुछ उद्दीपनों, संवेदनों और सीखने की क्षमताओं से परिपूर्ण है। शिशु को उद्दीपन, संवेदन और सीखने की इन क्षमताओं से वातावरण के साथ अनुकूलन में मदद मिलती है। दो वर्ष की आयु तक बालक का वजन और ऊँचाई (लम्बाई) तेजी से बढ़ता है। बाद में वृद्धि दर किशोरावस्था तक धीमी होती है। इसके बाद 12 से 19 वर्ष तक अचानक तीव्र वृद्धि होती है।
यहां सुविधा के लिए बालक के शारीरिक व क्रियात्मक विकास के महत्त्वपूर्ण सोपान सारिणी रूप में उपस्थित हैं-
पेट के बल लेटकर ठुड्डी उठाना सिर एवं सीना उठाना पलट जाना सहरी के साथ बिना बैठे हथेली से चीजों को उठाना अंगूठे एवं उंगलियों का अच्छा उपयोग अकेले बैठना (बिना सहारे के) सहारे के साथ खड़े होना (फर्नीचर को पकड़कर) स्वतंत्र रूप से खड़े होना बिना किसी के सहारे के कुछ कदम चलना आगे की उंगलियां एवं अंगूठे से वस्तु को पकड़ना अकेले चलना दौड़ना एवं सीढियां चढ़ना पैर की उंगली के अगले भाग से चलना तीन पहिए की साइकिल पर चढ़ना सर के ऊपर गेंदफेंकना ,सीढ़ियां से एक पैर से नीचे उतरना | 1 माह 2 माह 4 माह 5 माह 7 माह 8 माह 8 -9 माह 9-10 माह 12-13 माह 13 – 14 माह 15 माह 2 वर्ष 2 ½ वर्ष 3 वर्ष 4 वर्ष |
यह ध्यान देने वाली बात है कि उपर्युक्त सारिणी एक मानदंड है, लेकिन बच्चों में इससे भिन्नता भी हो सकती है। क्रियात्मक विकास की आयु अलग-अलग होती है। हाँ, चिंता होती है जब बच्चा इस विकास क्रम में छह से आठ महीने पीछे रहता है। बच्चे की हड्डियों और मांसपेशियों की रचना बढ़ने के साथ-साथ उनकी लम्बाई और वजन भी बदलने लगता है। हड्डियां मोटी, लम्बी होने लगती हैं। मांसपेशियाँ लम्बी होने लगती हैं और सघन होने लगती हैं। यह वृद्धि सिर से नीचे की ओर बढ़ती है, इसलिए सबसे पहले सिर (मस्तिष्क) क्षेत्र जल्दी विकसित होता है। फिर पैर तक परिपक्वता आने लगती है।
फीटस की प्रारंभिक अवस्था में मस्तिष्क तेजी से विकसित होता है। मस्तिष्क की स्नायविक वृद्धि गर्भावस्था के अंतिम तीन महीनों में तेजी से होती है। मस्तिष्क के पार्श्व तिर्यक, यानी दायां गोलार्ध शरीर के बाएं भाग और बायां गोलार्ध शरीर के दाएं भाग पर नियंत्रण रखता है। कुछ भागों का काम अलग है।
उदाहरण के लिए, बायाँ गोलार्ध (प्रमस्तिष्क) बोलने, सुनने और जैविक स्मृति भाषा से साधन से जुड़ा है, जबकि दाहिना गोलार्ध गैर भाषिक ध्वनियों से जुड़ा है, जैसे संगीत, क्रियात्मक गतिविधि, स्पर्श जनित संवेदनाएं आदि। कई लोग मस्तिष्क पाश्र्वीकरण विकसित करते हैं, यानी एक हाथ या शरीर के एक हिस्से से अधिक काम करना पसंद करते हैं। दस प्रतिशत लोग दाएं हाथ से अपना सारा काम करते हैं, लेकिन दस प्रतिशत ही बाएं हाथ से अधिकांश काम करते हैं।
इसमें कुछ लोग दाएं और बाएं हाथ और शरीर के दोनों हिस्सों से काम कर सकते हैं। महाभारत काल में अर्जुन को यह क्षमता मिली, इसलिए उसे सव्यसाची कहा जाता था। हाथ की समस्या लगभग जन्मजात होती है और दो वर्ष की आयु में स्पष्ट होने लगती है। यह भी देखा गया है कि हाथ पर बल लगाने से बच्चों को स्पष्ट बोलने या बोलने में ही समस्या होती है। इन कुछ चित्रों के मध्य में आम बच्चों की चलने की प्रक्रिया दिखाई देती है।
प्रश्न 2. मध्य बाल्यकाल में गतिक विकास के मुख्य लक्षण बताइये ।
उत्तर- ठोस संक्रियात्मक अवस्था – जब बच्चा पूर्व संक्रियात्मक अवस्था में होता है, तो वह धीरे-धीरे कुछ परिस्थितियों में संरक्षण को समझने लगा है और उसे दिखाता है। 7 से 11 वर्ष तक ठोस संक्रियात्मक अवस्था रहती है। इस समय तक बच्चा स्वयं संख्या, वजन, आयतन, क्षेत्र आदि संरक्षण करता है। औपचारिक शिक्षा भी उसे बहुत कुछ सिखाती है। वह यह मानने लगता है कि ये गुण निरंतर रहते हैं।
वास्तव में, समझ और तार्किकता ठोस संक्रियात्मक अवस्था से जुड़ी हुई हैं। इसमें बच्चा किसी चीज को क्रम में व्यवस्थित करना सीखता है, यानी क्रमिक स्थिति में वस्तुओं को व्यवस्थित करता है। वह वस्तु को विभिन्न आकारों आदि में वर्गीकृत करके देखने लगता है, लेकिन यह उसकी मध्य बाल्यावस्था ही है, इसलिए उसका विचार अभी ठोस स्थितियों तक ही सीमित है। अमूर्त या परिकल्पनात्मक परिस्थितियों में वह अपनी तार्किक क्षमता का उपयोग नहीं कर सकता।
प्रश्न 3. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था और पियाजे के प्रत्यक्ष अवस्था के सिद्धान्त में अन्तर बताइए ।
उत्तर- जब बच्चे दुनिया को जानते व समझते हैं, उनके तरीकों और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में विकास और परिवर्तन होता रहता है। इस विषय में विस्तृत अध्ययन करते हुए, पियाजे ने कहा कि अनुकूल प्रक्रियाएं (जिसमें शारीरिक और बौद्धिक विकास भी शामिल है) हमारे आसपास की दुनिया में होने वाली क्रियाओं का परिणाम हैं। हमारा संज्ञानात्मक विकास अनुकूलन प्रक्रिया के दौरान एक निश्चित क्रम में होता है। पियाजे ने मानसिक विकास की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है:-
(i) संवेदनी पेशीय अवस्था – यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक होती है। इसकी विशेषता यह है कि इस आयु काल में संवेदनी – क्रियात्मक क्रियाओं के आधार पर ज्ञान होता है किन्तु मानसिक प्रक्रिया अथवा संकेतों का अभाव होता है तथा उद्दीपक स्थायित्व के सम्प्रत्यय का क्रमिक विकास होता है।
(ii) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था – यह 2-7 वर्ष के बीच का विकास काल है। इस आयुकाल में धीरे-धीरे मानसिक प्रतिमाओं का बनना प्रारंभ हो जाता है। दुनिया को (परिवेश) का वर्णन करने के लिए बालक संकेतों व शब्दों का उपयोग करने लगता है । बालक में सीमित चिन्तन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है तथा उसमें आत्म- केंद्रित विचार जागने लगते हैं।
(iii) मूर्त संक्रियात्मक अथवा ठोस संक्रियात्मक अवस्था– यह स्थिति 7 से 11 वर्ष तक रहती है। इस आयु में बच्चे कुछ परिस्थितियों में बचाव कर सकते हैं। वह संख्या, वर्ष, मात्रा, आयतन आदि समझता है। बच्चे तार्किक सिद्धांतों को समझने लगते हैं। वह चीजों को श्रेणीबद्ध करने लगता है और मूर्त और वास्तविक स्थितियों पर तर्कपूर्ण विचार करने लगता है।
(iv) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था – 11 वर्ष से अधिक की उम्र में यह स्थिति होती है। यही बालक को किशोरावस्था में ले जाता है। बालक इस आयु में किशोर अवस्था में प्रवेश करते ही अमूर्त (कल्पनामयी) परिस्थितियों में भी तर्कपूर्ण सोचने लगता है। वह नियमनात्मक और परिकल्पनात्मक परिस्थितियों में तर्क का प्रयोग करने लगता है। बालक को सूचना संसाधनों का पता चलता है
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (सोदाहरण वर्णन)—यह दो वर्ष से सात वर्ष तक का विकास है। इस स्थिति में शिशु का मानसिक विकास इतना हो जाता है कि वह एक वस्तु को अपने मस्तिष्क में अस्थायी बिम्ब बनाने लगता है (यानी वस्तु उसके सामने है तो वह उसे देखता है)। उसे आकर्षित करता है।
उसे पकड़ना, छूना, लेना चाहता है। लेकिन अगर वह वस्तु उसके सामने से हटा दी जाती है, तो कुछ ही क्षणों में वह वस्तु उसके मस्तिष्क से गायब हो जाएगी। वह किसी और वस्तु से आकर्षित होने लगता है। लेकिन वह संकेत से वस्तु को समझने लगता है। वह वाचक शब्द और वस्तु के बीच संबंधों को समझने लगता है। वायुयान की आवाज पर चिल्लाकर दौड़ने लगता है। जब वह दूध पीने के लिए गिलास लेकर आता है, तो वह बहाने बनाता है कि वह नहीं पीना चाहता है। सोने की मुद्रा बना लेता है और कहता है कि “नींद आ रही है”
भाषा में शब्दों के रूप में वाचिक संकेतों का उपयोग दुनिया को बताने के लिए किया जाता है, और बच्चा इस आयु तक तोड़-तोड़कर बोलना शुरू कर देता है, भाषा संकेत समझने-बोलने लगता है। बालक की पूर्व संक्रियात्मक अवस्था का यह विकास मात्र है। इस आयु तक बच्चे का मस्तिष्क स्वचालित व्यवहार करने को तैयार हो जाता है। उसे वस्तुओं को जोड़ने-तोड़ने और बदलने की क्षमता मिलती है, लेकिन इतना करने के बावजूद, उसका मन अभी भी अपने आप पर केंद्रित रहता है।
जैसे बच्चा किसी दुकान पर एक खिलौना देख रहा है। वह नहीं जानता कि उसके पास खड़ा दूसरा बच्चा दूसरे खिलौने को देख रहा है। यह पूर्व संक्रियात्मक संज्ञान का दूसरा पक्ष है क्योंकि बच्चे का मन अभी भी सीमित या आत्मकेंद्रित है और व्यवस्थित करने की पूरी क्षमता नहीं पा सका है। जब बच्चा दूध पीता है, तो उसे कांच का गिलास चाहिए। वह समझ नहीं पाता कि दूध का बर्तन बदलने से दूध की मात्रा नहीं बदलती, यानी उसकी तार्किक बुद्धि अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है।
2 से 7 वर्ष तक का बच्चा अकेले चलने-फिरने और कुछ काम करने योग्य हो जाता है, लेकिन यह प्रारंभिक बाल्यावस्था है, इसलिए वह पूरी तरह सक्षम नहीं हो पाता है। इसलिए वह तेजी से गिर जाता है। संभालने में समय लगता है। उसके हाथ भी पूरी तरह से मजबूत नहीं हैं। उसे चीजों की पहचान होने लगती है, लेकिन वह ओझल होने के साथ-साथ धूमिल हो जाती है; इसलिए, तार्किक बुद्धि के अभाव में वह आसानी से बहलाया जा सकता है। 7 से 11 साल का बच्चा जिद ठान ले तो उसे तर्क से समझाया जा सकता है, लेकिन 2 से 7 साल का बच्चा तर्क नहीं समझ पाता, इसलिए उनका ध्यान दूसरी चीज से हटाकर समस्या सुलझाया जाता है।
प्रश्न 4. प्रारम्भिक बाल्यकाल में संवेगात्मक विकास के मुख्य लक्षण बताइए।
उत्तर- अब मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन से स्पष्ट हो गया है कि मानव-विकास केवल शरीर, जैविक व्यवस्थाओं और मानसिक क्षमताओं का विकास नहीं है। समाज उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम देख सकते हैं कि नवजात शिशु का विकास सामाजिक संबंधों का विकास करता है। घर-परिवार से ही यह प्रेम भाव शुरू होता है। वह अपनी मां को जानता है। माँ उसके समाज में प्रवेश करती है। माँ ही बालक को उसके पिता से परिचित कराती है। यह एक कटु सत्य है, लेकिन यदि माँ नहीं बताती तो बालक इस बड़े समाज में अपने पिता को कैसे ढूंढ पाएगा? यह परिवार संस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू है। माता-पिता के बाद बच्चा घर के अन्य लोगों से मिलता है। बच्चे के समाज का दायरा बढ़ता जाता है, यानी वे अपने परिवेश का हिस्सा बन जाते हैं।
बच्चे के सामाजिक संबंधों के विकास को उसकी विशिष्ट विशेषताओं—अंत: क्रिया (इंटरएक्शन) के तरीकों, संवेगों और मूल्यों के आधार पर जाना जाता है। प्रत्येक बच्चा एक स्वतंत्र इकाई है और अपने व्यक्तित्व को विकसित करते समय उसके गुणों की एक विस्तृत श्रृंखला दिखाई देती है। यह बच्चा बहुत खूबसूरत है। बिल्कुल जिद नहीं करता, बहुत शालीन है, बहुत शांत है। ऐसे विशेषणयुक्त शब्द बालक के विकसित होते व्यक्तित्व के ही हिस्से हैं जो उसे बचपन से ही अलग पहचान देने लगते हैं।
वास्तव में, व्यक्तित्व व्यवहार में विभिन्न रूपों (तरीकों) का समग्र चित्रण करता है। यह व्यक्ति को जो वह बनाता है, उसकी प्रतिष्ठा देता है। नवजात शिशु, जो अभी अपनी विशिष्टताओं के आधार पर सामाजिक अस्तित्व नहीं बना पाया है, को विशेषीकृत व्यवहार या मनोवैज्ञानिक गुणों के कारण कठिनाई से पहचाना जाता है. लेकिन जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, वह सामाजिक संबंधों का विकास करता है, निश्चित संवेगों के साथ व्यवहार करता है, सामाजिक नियमों और प्रथाओं को मानना सीखता है ये सभी गुण बच्चे को समाज के अनुरूप या खास गुणों वाला बनाते हैं।
नवजात शिशु की मुख्य भंगिमा बताती हैं कि वह दुःख, आनन्द, कष्ट, सुख, घृणा आदि भावनाओं को व्यक्त कर सकता है। 6 महीने का बच्चा क्रोध, दुलार, दुःख, आश्चर्य, डर आदि भावनाओं को व्यक्त करने लगता है। दूसरे वर्ष में अन्य अधिक जटिल भावनाएं, जैसे शर्म, प्रेम और गर्व आदि विकसित होने लगती हैं। बच्चे का सामाजिक विकास महत्वपूर्ण है। यह भी सामाजिक अंतःक्रिया को बढ़ावा देता है। साथ ही बच्चों में दूसरों की भावनाओं को समझने की क्षमता भी विकसित होने लगती है। इससे उन्हें अपने व्यवहार की उपयुक्तता को जांचने में सहायता मिलती है क्योंकि उन्हें दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया से ज्ञान मिलता है।
बच्चों का सामाजिक विकास उनके माता-पिता, संरक्षक या अन्य नजदीकी लोगों से लगाव या प्यार से प्रभावित होता है। संरक्षक भी बच्चे को प्यार देते हैं, जैसे उसके किसी काम की प्रशंसा करना। इस आयु में अपरिचित लोगों की उपस्थिति में चिंता और अपनों के प्रति लगाव की भावना प्रकट होने लगती है।
शिशु पहले माँ या देख रेख करने वाले से जुड़ता है। 6-8 माह की उम्र में, बच्चे अपने संरक्षक से जुड़ने में सुरक्षित महसूस करते हैं। प्रारंभ में बच्चे को भेदभाव की समझ नहीं आती है।
उसमें अपने-पराए का भेद स्पष्ट नहीं होता, लेकिन दो वर्ष की आयु तक उसमें अपने-पराए का भाव पूरी तरह विकसित होता है और स्थिर होता है। विद्यालय में पढ़ते हुए बच्चे अपने आंतरिक स्व को समझते हैं और आठ वर्ष की आयु तक आंतरिक स्व का संप्रत्यय बनाते हैं। इस स्तर पर बच्चे अपने आंतरिक मनोवैज्ञानिक विशेषताओं पर आधारित होना शुरू कर देते हैं। उनके इस ‘स्व’ भाव में उनका महत्व और आत्मसम्मान है। यही कारण है कि बच्चों को अपने माता-पिता का प्यार और सहयोग मिलता है और वे अपनी क्षमताओं को बढ़ाते हैं, तो वे उच्च सम्मान का विकास करते हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं कि माता-पिता का स्नेह व समर्थन तथा उनका सामाजिक संबंधों पर प्रभाव, बच्चे की सामाजिकता अथवा दूसरों के साथ अंतः क्रिया करने व दूसरों के साथ रहने की प्रवृत्ति से जुड़ी होती है। जो बच्चे बहुत अधिक प्रतिबंधित वातावरण में पलते हैं वे कम सामाजिक होते हैं।
यौन भूमिका का विकास बच्चों के व्यक्तित्व के विकास का दूसरा हिस्सा है। प्रत्येक समाज में पुरुष और स्त्री के यौन व्यवहार का मानदंड है। स्त्री-पुरुष के लिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त व्यवहारों और गुणों के मानदण्ड यौन भूमिका हैं। बच्चे (लड़का या लड़की) सांस्कृतिक रूप से अपने जैविक लिंग (पुल्लिग स्त्री लिंग) के अनुसार व्यवहार करते हैं और यौन निर्धारण प्रक्रम द्वारा अपनी लिंग अस्मिता विकसित करते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में, खेलों, गतिविधियों और व्यवहार के विभिन्न मानकों के माध्यम से लड़कों और लड़कियों को पोषण देने के विभिन्न तरीके हैं। बहुत से बच्चे लगभग ढाई साल की आयु में लड़का या लड़की होने के संकेत देते हैं, जैसे उनके व्यवहार और प्राथमिकताएं. उदाहरण के लिए, लड़के शारीरिक और आक्रामक खेलों में रुचि दिखाते हैं, जबकि लड़कियां शांतिपूर्ण खेलों में रुचि दिखाती हैं।
जब बच्चे 6 से 8 वर्ष की उम्र में होते हैं, वे लड़के या लड़की के रूप में अपने सामाजिक मूल्यों को विकसित करते हैं। वे समझते हैं कि लड़का या लड़की होना उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है और उनकी अलग पहचान है।
सांस्कृतिक प्रभावों का सामाजिक विकास पर प्रभाव—बच्चे में लिंग भेद (लड़का या लड़की होने की भावना) की भावना के साथ-साथ सामाजिक रूप से सही व्यवहार की भावना भी विकसित होती है। वे सामाजिक मूल्यों, मूल्यों और विश्वासों को समझने लगते हैं और सामाजिक रूप से सही व्यवहार करना सीखते हैं।
समाजीकरण मूलतः सामाजिक रूप से अनुकूल व्यवहारों, मानकों, मूल्यों और विश्वासों को विकसित करने का प्रक्रिया है। समाज में इनका पालन करना महत्वपूर्ण है। समाजीकरण, जिसमें बच्चों को सांस्कृतिक मूल्यों, पसंदों और व्यवहार को बताने का प्रयास है, और प्रत्येक समाज में इसके लिए कई संस्थाएं, अभिकर्ताओं और तरीके हैं, स्व से परे (दूसरे लोग परिवेश) के प्रति दायित्वबोध और चिन्तन भाव है। वर्गीकरण इसमें माता-पिता, परिवार, दोस्तों, स्कूल, धार्मिक संस्थाएं (मंदिर, मस्जिद) और सार्वजनिक मीडिया (रेडियो, दूरदर्शन) को शामिल करते हैं।
सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहारों को प्रतिष्ठा दी जाती है; अंतःक्रियात्मक और परोक्ष-अपरोक्ष रूप से सीखने; और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त विचारों और व्यवहारों को पुनर्वितरित करने के विभिन्न तरीकों। समाजीकरण में बच्चे का व्यवहार नियंत्रित किया जाता है और अप्रिय, अव्यावहारिक, असामाजिक (नकारात्मक) व्यवहार नियंत्रित किया जाता है। जब बच्चा वयस्कों से मिलकर काम करता है, तो वह उनसे ज्ञान, व्यवहार और कौशल प्राप्त करता है जो उसे उस समुदाय में सफलतापूर्वक काम करने में मदद करेंगे। इस प्रकार, बच्चे का व्यक्तिगत विकास समाजीकरण से होता है और बच्चा समाजीकृत प्रौढ़ बनता है।
प्रश्न 5. बाल्यकाल में समाजीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक कारक जैसे प्रभाव डालते हैं?
उत्तर- बच्चे लिंग की पहचान उम्र के बढ़ते क्रम में करने लगते हैं। वह लड़का या लड़की में भेदभाव देखता है। यही कारण है कि बालक सामाजिक रूप से अनुकूल व्यवहार करने के प्रति जागता है और सामाजिक मानकों, मूल्यों और विश्वासों के प्रति जागरूकता और लगाव विकसित करता है। सामाजीकरण, बच्चों को सांस्कृतिक मूल्यों, रुचिओं और व्यवहार को बताने का प्रयास है, जिसके लिए प्रत्येक समाज में कई संस्थाएं और तरीके हैं। यह जागरूकता और लगाव का प्रक्रम, यानी स्व से परे (दूसरे लोगों, परिवेश) के प्रति दायित्वबोध और चिन्तन भाव है। उसमें अलग-अलग श्रेणियां बनाई गई हैं, जिसमें माता-पिता, परिवार, साथी विद्यालय, धार्मिक स्थान, मीडिया आदि सबसे बड़े अभिकर्ता हैं जो सामाजीकरण में योगदान देते हैं।
पालन-पोषण के विभिन्न तरीकों को देखते हुए, सांस्कृतिक मूल्यों-व्यवहारों को प्रतिष्ठा दी जाती है, जो सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त विचारों-व्यवहारों को पुनर्बलित करने के लिए क्रियाशील और परोक्ष-अपरोक्ष रूप से सीखते हैं। समाजीकरण बच्चों के व्यवहार को नियंत्रित करता है। उसके अप्रिय, अव्यावहारिक असामाजिक व्यवहार को नियंत्रित किया जाता है। जैसे ही बच्चा वयस्कों के साथ अंतः क्रिया करना शुरू करता है, वह वयस्कों के सान्निध्य में ज्ञान, व्यवहार और कौशल प्राप्त करता है, जिससे वह समुदाय में सफल और व्यावहारिक हो सके। यही कारण है कि बच्चा सांस्कृतिक विकास के माध्यम से समाज में सही व्यवहार सीखता है। उसका व्यक्तित्व बढ़ता है।