Class 12th History Chapter 5. यात्रियों के नजरिए
NCERT Solutions For Class 12th History Chapter- 5 यात्रियों के नजरिए – जो विद्यार्थी 12th कक्षा में पढ़ रहे है ,उन सब का सपना होता है कि वे बारहवी में अच्छे अंक से पास हो ,ताकि उन्हें आगे एडमिशन या किसी नौकरी के लिए फॉर्म अप्लाई करने में कोई दिक्कत न आए .इसलिए आज हमने इस पोस्ट मेंएनसीईआरटी कक्षा 12 इतिहास अध्याय 5 (यात्रियों के नजरिए ) का सलूशन दिया गया है जोकि एक सरल भाषा में दिया है .क्योंकि किताब से कई बार विद्यार्थी को प्रश्न समझ में नही आते .इसलिए यहाँ NCERT Solutions History For Class 12th Chapter 5 yatriyon ke najriye दिया गया है. जो विद्यार्थी 12th कक्षा में पढ़ रहे है उन्हें इसे अवश्य देखना चाहिए . इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आप Ch .5 यात्रियों के नजरिए के प्रश्न उत्तरों ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | HISTORY |
Chapter | Chapter 5 |
Chapter Name | यात्रियों के नजरिए |
Category | Class 12 History Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
NCERT Solutions for Class 12 इतिहास (भारतीय इतिहास के कुछ विषय – II) Chapter 5 यात्रियों के नज़रिए
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
अथवा
अल-बिरूनी द्वारा अपनी कृतियों में जिस विशिष्ट शैली का प्रयोग किया गया उसको स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- अल-बिरूनी ने अपनी कृतियों में जिस विशिष्ट शैली का प्रयोग किया है, उसे जानने के लिए हम उसकी कृति किताब-उल-हिंद का उदाहरण लेते हैं। अरबी में लिखी इसकी भाषा सरल एवं स्पष्ट है। इसे धर्म एवं दर्शन, त्योहारों, खगोलविज्ञान, रीति-रिवाजों एवं प्रथाओं, सामाजिक जीवन, भार-तोल एवं मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों : के आधार पर अस्सी अध्यायों में बाँटा गया है।अल-बिरूनी ने प्रत्येक अध्याय में प्राय: एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया है। आरंभ में एक प्रश्न है, इसके बाद संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन है और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना की गई है। आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। इसी कारण ही उसकी पुस्तक, जो लगभग एक ज्यामितीय संरचना है, बहुत ही स्पष्ट बन पड़ी है।
उत्तर- इब्न बतूता तथा बर्नियर ने भारत में अपनी यात्राओं का वृत्तांत विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखा है। इब्न बतूता ने भारत की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों, आस्थाओं, पूजास्थलों तथा राजनीतिक गतिविधियों के बारे में लिखा। उसे जो कुछ विचित्र लगता था, उसका वह विशेष रूप से वर्णन करता था। उदाहरण के लिए उसने नारियल और पान का बहुत ही रोचक ढंग से वर्णन किया है। उसने भारत की शहरी संस्कृति तथा बाजारों की चहल-पहल पर भी प्रकाश डाला है। इब्न बतूता के लिखने का दृष्टिकोण भी आलोचनात्मक था। इसके विपरीत बर्नियर ने भारतीय समाज की त्रुटियों को उजागर करने पर जोर दिया। वह भारत की प्रत्येक स्थिति की तुलना यूरोप और विशेषकर फ्रांस की स्थितियों से करता था। उसने यही दिखाने का प्रयास किया कि विकास की दृष्टि से भारत यूरोप की तुलना में पिछड़ा हुआ है।
उत्तर- 17वीं शताब्दी में लगभग पंद्रह प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रहती थी। यह अनुपात उस समय की पश्चिमी यूरोप की नगरी जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। फिर भी बर्नियर मुगलकालीन शहरों को ‘‘शिविर नगर” कहता है, जिससे उसका आशय उन नगरों से है जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये नगर राज दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और उसके चले जाने के बाद तेजी से विलुप्त हो जाते थे। वह यह भी कहता है कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नींव व्यावहारिक नहीं होती थी और ये राजकीय संरक्षण पर आश्रित रहते थे।
वास्तव में, सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे—
उत्पादन केंद्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केंद्र, तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यावसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग;, जैसे-चिकित्सक (हकीम तथा वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद्, संगीतकार, सुलेखक आदि सम्मिलित थे।
उत्तर- इब्न बतूता के अनुसार बाजारों में दास अन्य वस्तुओं की तरह खुलेआम बिकते थे और नियमित रूप से भेंट में भी दिए जाते थे।
(1) जब इब्न बतूता सिंध पहुँचा तो उसने भी सुलतान मुहम्मद-बिन-तुग़लक को भेंट में देने के लिए घोड़े, ऊँट तथा दास खरीदे थे।
(2) जब वह मुलतान पहुँचा तो उसने गवर्नर को किशमिश तथा बादाम के साथ एक दास और घोड़ा भेंट के रूप में दिया था।
(3) इब्न बतूता बताता है कि सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक ने नसीरुद्दीन नामक एक धर्मोपदेशक के प्रवचन से प्रसन्न होकर उसे एक लाख टके (मुद्रा) तथा दो सौ दास दिए थे।
(4) सुलतान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं। इब्न बतूता सुलतान की बहन की शादी के अवसर पर उनके प्रदर्शन से खूब आनंदित हुआ था। सुलतान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए भी दासियों को नियुक्त करता था।
(5) दासों को सामान्यत: घरेलू श्रम के लिए प्रयोग में लाया जाता था। वे विशेष रूप से पालकी या डोली में महिलाओं या पुरुषों को ले जाने का काम करते थे। दासों का मूल्य उन दासियों की तुलना में बहुत कम था, जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए होती थी। इसलिए अधिकांश परिवार उनको रख पाने में समर्थ थे।
उत्तर- सती–प्रथा के निम्नलिखित तत्वों ने बर्नियर का ध्यान अपनी ओर खींचा
(1) यह एक क्रूर प्रथा थी जिसमें विधवा को अग्नि की भेंट चढ़ा दिया जाता था।
(2) विधवा अपनी इच्छा से सती नहीं होती थी, बल्कि उन्हें सती होने के लिए विवश किया जाता था।
(3) बाल-विधवाओं के प्रति भी लोगों के मन में सहानुभूति नहीं थी।
(4) सती होने वाली स्त्री की चीख-पुकार भी किसी का दिल नहीं पिघला पाती थी।
(5) इस प्रक्रिया में ब्राह्मण तथा घर की बड़ी महिलाएँ हिस्सा लेती थीं।
उत्तर-अल-बिरूनी ने अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज द्वारा जाति-व्यवस्था को समझने और उसकी व्याख्या करने का प्रयास किया। प्राचीन फारस के चार वर्ग-उसने लिखा कि प्राचीन फारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता प्राप्त थी।
(i) घुड़सवार और शासक वर्ग।
(ii) भिक्षु एवं आनुष्ठानिक पुरोहित।
(iii) चिकित्सक, खगोल शास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक।
(iv) कृषक तथा शिल्पकार।
वास्तव में वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ ही, उसने यह भी दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएँ केवल धर्म पालन के आधार पर थीं।
अपवित्रता की मान्यता का विरोध-जाति-व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद, अल-बिरूनी ने : अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार कर दिया। उसने लिखा कि प्रत्येक वस्तु जो अपवित्र हो जाती है, अपनी खोई हुई पवित्रता को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है। अल-बिरूनी जोर देकर कहता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाता। उसके अनुसार जाति-व्यवस्था में शामिल अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है।
भारत के चार वर्ण-अल-बिरूनी ने भारत की वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख इस प्रकार किया है :
1. ब्राह्मण-ब्राह्मणों की जाति सबसे ऊँची थी। हिंदू ग्रंथों के अनुसार उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के सिर से हुई थी। क्योंकि ब्रह्मा प्रकृति का दूसरा नाम है और सिर शरीर का सबसे ऊपरी भाग है, इसलिए हिंदू उन्हें मानव-जाति में सबसे उत्तम मानते हैं।
2. क्षत्रिय-माना जाता है कि क्षत्रिय ब्रह्मा के कंधों और हाथों से उत्पन्न हुए थे। उनका दर्जा ब्राह्मणों से अधिक नीचा नहीं है।
3. वैश्य-वैश्य जाति-व्यवस्था में तीसरे स्थान पर आते हैं। वे ब्रह्मा की जंघाओं से जन्मे थे।
4. शूद्र-इनका जन्म ब्रह्मा के चरणों से हुआ था। अंतिम दो वर्गों में अधिक अंतर नहीं है। ये शहरों और गाँवों में मिल-जुलकर रहते थे। वास्तव में जाति-व्यवस्था के विषय में अल-बिरूनी का विवरण पूरी तरह से संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन से प्रभावित था। इन ग्रंथों में ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था। परंतु वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी कड़ी नहीं थी। उदाहरण के लिए जाति-व्यवस्था के अंतर्गत न आने वाली श्रेणियों से प्रायः यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और ज़मींदारों को सस्ता श्रम प्रदान करें। भले ही ये श्रेणियाँ प्रायः सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होती थी, फिर भी उन्हें आर्थिक तंत्र में शामिल किया जाता था।
उत्तर- इसमें कोई संदेह नहीं कि इब्न बतूता का वृत्तांत शहरी केंद्रों की जीवन-शैली को समझने में सहायक है। इसका कारण यह है कि यह वृत्तांत बहुत ही विस्तृत तथा स्पष्ट है। ऐसा लगता है जैसे कि एक सजीव चित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया गया हो।
(1) इब्न बतूता के अनुसार उपमहाद्वीप के नगरों में इच्छा-शक्ति, साधनों तथा कौशल वाले लोगों के लिए भरपूर अवसर थे। ये नगर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे। परंतु कुछ नगर युद्धों तथा अभियानों के कारण नष्ट भी हो चुके थे।
(2) इब्न बतूता के वृत्तांत से ऐसा लगता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाज़ार थे जो भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे।
(3) इब्न बतूता दिल्ली को भारत में सबसे बड़ा शहर बताता है जिसकी जनसंख्या बहुत अधिक थी। दौलताबाद (महाराष्ट्र में) भी कुछ कम नहीं था। यह आकार में दिल्ली को चुनौती देता था।
(4) बाज़ार मात्र क्रय-विक्रय के ही स्थान नहीं थे, बल्कि ये सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केंद्र भी थे। अधिकांश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मंदिर होता था। कुछ बाजारों में नर्तकों, संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी विद्यमान थे।
(5) इब्न बतूता शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं रखता था। परंतु इतिहासकारों ने उसके वृत्तांत का प्रयोग यह तर्क देने के लिए किया है कि शहरों की समृद्धि का आधार गाँव की कृषि अर्थव्यवस्था थी।
(6) इब्न बतूता के अनुसार भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादन होने का कारण मिट्टी का उपजाऊपन था। अत: किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना आसान था।
(7) उसने यह भी ध्यान दिया कि उपमहाद्वीप व्यापार तथा वाणिज्य के एशियाई तंत्रों से भली-भाँति जुड़ा हुआ है। भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत माँग थी। इससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी लाभ होता था। भारत के सूती कपड़े, महीन मलमल, रेशम, ज़री तथा साटन की तो विशेष माँग थी। इब्न बतूता हमें बताता है कि महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक महँगी थीं कि उन्हें केवल अत्यधिक धनी लोग ही खरीद सकते थे।
उत्तर- बर्नियर का वृत्तांत समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित करने में इतिहासकारों को सक्षम बनाने की बजाय उन्हें भटकाता है। वह ग्रामीण समाज की कुछ ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत करता है, जो सच्चाई से हट कर प्रतीत होती हैं। परंतु उसके विवरण में कुछ तथ्य सत्य पर भी आधारित हैं। यह बात निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाती है|
(1) बर्नियर के अनुसार मुग़ल साम्राज्य में सारी भूमि का स्वामी सम्राट् था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था। इससे अर्थव्यवस्था और समाज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।
(2) बर्नियर के अनुसार भूमि पर राज्य के स्वामित्व के कारण भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोतरी करने का कोई प्रयास नहीं करते थे। इस प्रकार निजी भूस्वामित्व के अभाव ने भू-धारकों के “बेहतर” वर्ग का उदय न होने दिया जो भूमि सुधार तथा उसके रख-रखाव की ओर ध्यान देते। इसी के चलते कृषि के विनाश, किसानों के असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन-स्तर में लगातार पतन की स्थिति उत्पन्न हुई। केवल शासक वर्ग को ही इसका लाभ मिलता रहा।
(3) बर्नियर ने भारतीय समाज का वर्णन दरिद्र लोगों के एक जनसमूह के रूप में किया है। जिस पर एक अत्यधिक धनी तथा शक्तिशाली शासक वर्ग का नियंत्रण था। उसके अनुसार भारत में गरीबों तथा अमीरों के मध्य कोई अन्य सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बड़े विश्वास से कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं हैं।”
(4) कुल मिलाकर बर्नियर ने मुग़ल साम्राज्य को जिस रूप में देखा, उसकी ये विशेषताएँ थीं
(i) इसका राजा ‘‘भिखारियों और क्रूर लोगों” का राजा था।
(ii) इसके शहर और नगर ध्वस्त हो चुके थे तथा “खराब हवा” से दूषित थे। इन सबका एकमात्र कारण था- भूमि पर राज्य का स्वामित्व।
आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुग़ल दस्तावेज़ यह नहीं दर्शाता कि भूमि का स्वामी राज्य ही था । उदाहरण के लिए अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल फज़ल भू-राजस्व को राजस्व का पारिश्रमिक’ बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाता था, न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान के रूप में। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसे करों को लगान मानते हों क्योंकि भू-राजस्व की माँग प्राय: बहुत अधिक होती थी। परंतु वास्तव में यह न तो लगान था, न ही भूमिकर, बल्कि उपज पर लगने वाला कर था।
परंतु ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। वास्तव में 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद पाया जाता था। एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपयोग करते थे, जबकि दूसरी ओर “अस्पृश्य” भूमिविहीन श्रमिक थे। इन दोनों के बीच में बड़े किसान थे जो किराए के श्रम का प्रयोग करते थे और उत्पादन में जुटे रहते थे। साथ ही कुछ छोटे किसान भी थे जो इतना उत्पादन भी नहीं कर पाते थे जिससे उनका गुजारा हो सके।
उत्तर- इस उद्धरण में बंदूकें बनाना तथा सोने के आभूषण बनाना आदि शिल्प-कार्यों का उल्लेख किया गया। भारतीय कारीगर इन्हें बड़ी निपुणता तथा कलात्मक ढंग से बनाते थे। यह उत्पाद इतने सुंदर होते थे कि बर्नियर भी इन्हें देखकर हैरान रह गया था। वह कहता है कि यूरोप के कारीगर भी शायद इतनी सुंदर वस्तुएँ बना पाते हों।
तुलना-इस अध्याय में वर्णित अन्य शिल्प गतिविधियाँ निम्नलिखित हैं
(i) कसीदाकारी (ii) चित्रकारी (iii) रंग-रोगन करना (iv) बढ़ईगीरी (v) कपड़े सीना (vi) जूते बनाना (vii) रेशम, जरी और बारीक मलमल का काम (viii) सोने के बर्तन बनाना। ये सभी गतिविधियाँ राजकीय कारखानों में चलती थीं। बर्नियर इन कारखानों को शिल्पकारों की कार्यशाला कहता है। ये शिल्पकार प्रतिदिन सुबह कारखाने में आते थे और पूरा दिन काम करने के बाद शाम को अपने-अपने घर चले जाते थे।
यात्रियों के नजरिए के अति लघु उत्तरीय प्रश्न
इस पोस्ट में Class 12 History Chapter 5 यात्रियों के नजरिए Notes In Hindi इतिहास कक्षा 12 वीं अध्याय 5 नोट्स यात्रियों के नजरिए के प्रश्न उत्तर Class 12 History Chapter 5 Notes PDF through the eyes of travellers class 12 notes Class 12 History Chapter 5 Through the Eyes of Travellers class 12 history chapter 5 questions and answers Class 12 History Chapter 5 yatriyon ke najriye Class 12 History Chapter 5 question Answer in Hindi से संबंधित काफी महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है यह जानकारी फायदेमंद लगे तो अपने दोस्तों के साथ शेयर करें और इसके बारे में आप कुछ जानना यह पूछना चाहते हैं तो नीचे कमेंट करके अवश्य पूछे.