Class 11 Sociology (समाज का बोध) Chapter 2 – ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था
NCERT Solutions For Class 11 Sociology (समाज का बोध) Chapter 2 .ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था | Class 11 Sociology (Understanding Society) Chapter 2 Notes in Hindi – जो उम्मीदवार 11वी कक्षा में पढ़ रहे है उन्हें ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था के बारे में पता होना बहुत जरूरी है .ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था 11 कक्षा के समाजशास्त्र के अंतर्गत आता है. इसके बारे में 11th कक्षा के एग्जाम में काफी प्रश्न पूछे जाते है .इसलिए यहां पर हमने एनसीईआरटी कक्षा 11th समाजशास्त्र अध्याय 2 (ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था) का सलूशन दिया गया है .इस NCERT Solutions for class 11 Sociology (Understanding Society) chapter 2 की मदद से विद्यार्थी अपनी परीक्षा की तैयारी कर सकता है और परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सकता है. इसलिए आप Ch.2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था के प्रश्न उत्तरों ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.
Textbook | NCERT |
Class | Class 11 |
Subject | Sociology (समाज का बोध) |
Chapter | Chapter 2 |
Chapter Name | ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था |
पाठ्य पुस्तक के प्रश्न (Textual Questions)
प्रश्न 1. क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें।
उत्तर. जी हां, हम इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में नवीन घटना है। तीव्र सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है वह क्रान्ति जिससे कि सम्पूर्ण समाज की संरचना ही परिवर्तित हो जाए। यह नवीन घटना ही है क्योंकि 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति से पहले किसी भी क्रान्ति ने सामाजिक परिवर्तन नहीं किया था । इस क्रान्ति के बाद 1917 में रूस की क्रान्ति तथा 1949 में चीन की क्रान्ति ने इन तीनों समाजों की संरचना को पूर्णतया ही परिवर्तित कर दिया था। अन्य सामाजिक परिवर्तन तो प्राचीन समाज से ही होते चले आ रहे हैं परन्तु तीव्र सामाजिक परिवर्तन पहली बार ही हुआ था । इसका कारण शायद यह था कि वहां के लोगों में सामाजिक चेतना आ गई तथा उन्होंने इस प्रकार का परिवर्तन कर दिया।
प्रश्न 2. सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है ?
उत्तर. सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से उनके क्षेत्र के आधार पर अलग किया जा सकता है । प्राकृतिक परिवर्तन केवल प्रकृति के क्षेत्र से ही सम्बन्धित होते हैं। आर्थिक परिवर्तन केवल समाज तथा व्यक्ति की अर्थव्यवस्था से ही सम्बन्धित होते हैं। राजनीतिक परिवर्तन केवल समाज की राजनीतिक संरचना से ही सम्बन्धित होते हैं । परन्तु सामाजिक परिवर्तन एक विस्तृत संकल्प है जिसमें समाज के सभी भाग राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, प्राकृतिक इत्यादि आते हैं और परिवर्तन समाज के केवल एक ही भाग से सम्बन्धित होते हैं । परन्तु सामाजिक परिवर्तन में समाज के सभी भाग शामिल होते हैं जिस कारण हम इसे और परिवर्तनों से अलग कर सकते हैं।
प्रश्न 3. संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं ? पुस्तक से अलग उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर. संरचनात्मक परिवर्तन से समाज की संरचना में ही परिवर्तन आ जाता है। इसका अर्थ है कि जब समाज में चल रही संस्थाओं अथवा नियमों में परिवर्तन आना शुरू हो जाए तो उसे संरचनात्मक परिवर्तन कहते हैं। उदाहरण के तौर पर प्राचीन समय में वस्तुओं अथवा सेवाओं का लेन-देन चलता था परन्तु आजकल विनिमय व्यवस्था नहीं बल्कि वस्तु के बदले में पैसे दिए जाते हैं ।
प्रश्न 4. पर्यावरण सम्बन्धित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताएं ।
उत्तर. पर्यावरण के कारण भी कई बार सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। बाढ़, अकाल, भूकम्प, सुनामी इत्यादि ऐसे प्राकृतिक परिवर्तन हैं जिनके कारण कोई क्षेत्र पूर्णतया खत्म भी हो सकता है। यह ऐसी शक्तियां हैं जिनके ऊपर व्यक्ति का कोई ज़ोर नहीं चलता है तथा इनसे क्षेत्र के क्षेत्र तबाह हो जाते हैं। इस कारण उस समाज को अन्य समाजों से सामंजस्य बिठाने के लिए काफ़ी मशक्त करनी पड़ती है । इस प्रकार पर्यावरण अथवा प्रकृति के कारण सामाजिक परिवर्तन भी आ जाते हैं ।
प्रश्न 5. वे कौन-से परिवर्तन हैं जो तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाए गए हैं ?
उत्तर. तकनीक तथा अर्थव्यवस्था से समाज में तेज़ी से परिवर्तन आया है। 1750 के बाद तकनीकी खोजों के कारण औद्योगिक क्रान्ति आई जिससे उत्पादन घरों से निकलकर उद्योगों में चला गया। तकनीक के साथ प्रकृति पर नियन्त्रण किया गया। बाढ़ को रोकने के लिए बांध बनाए गए। गर्मी तथा सर्दी से बचने के लिए ए०सी० बनाए गए, नए शहर विकसित किए गए। इस प्रकार तकनीक ने सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। तकनीक के कारण बड़े पैमाने पर उद्योग विकसित हो गए तथा अर्थव्यवस्था विनिमय से बदल कर रुपये पैसे पर आधारित हो गई। विश्वव्यापीकरण तथा बाज़ारी शक्तियां सामने आ गईं तथा घरेलू उद्योग नष्ट हो गए। आधुनिकता सामने आ गई तथा श्रम विभाजन और विशेषीकरण बढ़ गए। इस प्रकार तकनीक और अर्थव्यवस्था के कारण समाज पूरी तरह परिवर्तित हो गया।
प्रश्न 6. सामाजिक-व्यवस्था का क्या अर्थ है तथा इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है ?
उत्तर. जब हम सामाजिक परिवर्तन के साथ कागज के एक टुकड़े की तुलना करते हैं, तो हम एक प्रक्रिया के रूप में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समझते हैं। सामाजिक परिवर्तन तब स्पष्ट होता है जब चीजों की नियमितता में कोई परिवर्तन या विरोध न हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन को तभी समझा जा सकता है जब हम सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हैं। सामाजिक व्यवस्था एक संगठित सामाजिक व्यवस्था में एक प्रवृत्ति है जो परिवर्तन का विरोध करती है और इसे नियंत्रित करती है। लेकिन, उतना ही महत्वपूर्ण, सामाजिक व्यवस्था का एक अधिक सकारात्मक अर्थ है जो तब प्राप्त होता है जब समाज के सदस्य अपनी मर्जी के नियमों और मूल्यों का पालन करते हैं, या ऐसा करने के लिए मजबूर होते हैं।
सामाजिक व्यवस्था लोगों द्वारा तुरंत पहचानी जाती है, लेकिन यह मान्यता उन साझा मूल्यों और मानदंडों से आती है जिन्हें लोग अपने समाजीकरण के माध्यम से अपने भीतर आत्मसात करते हैं। प्रभावी होते हुए भी यह प्रक्रिया व्यक्ति की इच्छा को पूरी तरह से दबा नहीं सकती है। हर व्यक्ति की कुछ गलत इच्छाएं भी होती हैं जो पूरी तरह से दबाई तो नहीं जातीं, लेकिन कुछ समय के लिए छिप जरूर जाती हैं। जब ये इच्छाएँ बाहर आने लगती हैं तो सामाजिक व्यवस्था को तोड़ सकती हैं। ऐसा दो तरीकों से हो सकता है। कुछ लोग नियमों और मूल्यों से डरकर पीछे हट सकते हैं, लेकिन उन्हें रोकने के लिए मजबूरी का इस्तेमाल किया जाता है। वैकल्पिक रूप से, कानून और अन्य औपचारिक संस्थानों का उपयोग लोगों को सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए मजबूर करने के लिए किया जा सकता है। ऐसा नहीं करने पर उन्हें सजा हो सकती है।
प्रश्न 7. सत्ता क्या है तथा यह प्रभुता तथा कानून कैसे सम्बन्धित है ?
उत्तर. कुछ मामलों में, शक्ति एक संगठित समूह में स्थिति के आधार पर भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, किसी समूह के नेता के पास किसी ऐसे व्यक्ति की तुलना में अधिक शक्ति हो सकती है जो उतना प्रसिद्ध नहीं है। यह आमतौर पर एक पदानुक्रमित संरचना वाले समूहों में होता है। शीर्ष पर रहने वालों के पास आमतौर पर उनके नीचे वालों की तुलना में अधिक शक्ति होती है। लोगों के पास अलग-अलग तरीकों से शक्ति होती है जो इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार के समूह का हिस्सा हैं। एक संगठित समूह में, अधिकार वाले लोग होते हैं जो निर्णय लेते हैं और समूह की शक्ति को नियंत्रित करते हैं। यह आमतौर पर व्यवसायों, परिवारों और अन्य समूहों में एक सामान्य उद्देश्य के साथ होता है। कुछ लोगों के पास दूसरों की तुलना में अधिक शक्ति होती है क्योंकि उनके पास अधिक धन या संसाधनों पर नियंत्रण होता है। उदाहरण के लिए, व्यवसाय चलाने की शक्ति रखने वाले लोग यह तय कर सकते हैं कि क्या उत्पादन करना है और इसका उत्पादन कैसे करना है। जो कर्मचारी अपनी सेवाओं के बदले में मजदूरी अर्जित करते हैं, उनके पास कम शक्ति होती है। व्यवसाय चलाने के तरीके के बारे में वे कुछ भी बदलने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। शक्ति ही एकमात्र ऐसा कारक नहीं है जो लोगों के जीवन को प्रभावित करता है। कौशल और ज्ञान जैसी अन्य चीजें भी एक भूमिका निभाती हैं।
शक्ति चीजों को घटित करने की क्षमता है। यह अधिकार होने से आता है (लोगों को वह करने में सक्षम होना जो आप चाहते हैं) और कानून होने से (नियमों की एक प्रणाली जो लोगों को यह जानने में मदद करती है कि उनसे क्या अपेक्षा की जाती है)। ये तीनों चीजें संबंधित हैं क्योंकि एक के बिना, अन्य दो बेकार होंगी।
प्रश्न 8. गांव, कस्बा तथा नगर एक-दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं ?
उत्तर. गांव – जिस भौगोलिक क्षेत्र में जीवन कृषि पर आधारित होता है, जहां प्राथमिक सम्बन्धों की भरमार होती है तथा जहां कम जनसंख्या के साथ सरलता होती है उसे गांव कहते हैं।
कस्बा – कस्बे को नगर का छोटा रूप कहा जाता है। जो क्षेत्र गांव से तो बड़ा होता है परन्तु नगर से छोटा होता है, उसे कस्बे का नाम दिया जाता है।
नगर – नगर वह भौगोलिक क्षेत्र होता है जहां लोग कृषि के स्थान पर और हज़ारों प्रकार के कार्य करते हैं, जहाँ द्वितीयक सम्बन्धों की भरमार होती है तथा जहां अधिक जनसंख्या के साथ जटिल सम्बन्ध पाए जाते हैं। इस प्रकार गांव, कस्बा तथा नगर एक-दूसरे से भौगोलिक क्षेत्र, जनसंख्या, जनसंख्या घनत्व, सम्बन्धों, पेशों, गतिशीलता इत्यादि के आधार पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं ।
प्रश्न 9. ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं क्या हैं ?
उत्तर. ग्रामीण समुदाय को इसकी विशेषताओं के आधार पर एक अलग समुदाय के रूप में जाना जाता है। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1. प्राथमिक सम्बन्ध (Primary Relations) – ग्रामीण समुदाय में व्यक्तियों में प्राथमिक सम्बन्ध पाए जाते हैं। गांव का आकार लघु व सीमित होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से जानता व पहचानता है। ग्रामवासियों में आपस के सम्बन्ध प्रत्यक्ष, घनिष्ठ व समीपता के होते हैं। इन सम्बन्धों का आधार परिवार, पड़ोस व नातेदारी होती है। ग्रामवासियों के सम्बन्ध औपचारिकता व कृत्रिमता व दिखावे से दूर होते हैं। लोगों में परस्पर सहयोग की भावना होती है व उन पर प्राथमिक नियन्त्रण होता है ।
2. कृषि मुख्य व्यवसाय (Agriculture as the main Occupation ) – भारतीय ग्रामीण समुदाय की मुख्य विशेषता कृषि-व्यवसाय है। यहां पर 70% से अधिक लोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कृषि व्यवसाय के आधार पर निर्भर हैं। गांव में कृषि-व्यवसाय मुख्य व्यवसाय होता है परन्तु इसके साथ ही कुछ लोग दूसरे व्यवसाय जैसे, मिट्टी के बर्तन, गुड़, रस्सी, चटाई व वस्त्र बनाने का काम भी करते हैं । भारतवर्ष की कृषि प्रकृति के साधनों पर निर्भर करती है । यदि प्राकृतिक परिस्थितियां अनुकूल हों तो फसल का उत्पादन अच्छा होता है अन्यथा प्रतिकूल परिस्थिति में उत्पादन कम व किसान की मेहनत अधिक होती है। कृषि भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार है ।
3. सीमित आकार (Limited Size) – ग्रामीण समुदाय में व्यक्ति प्रकृति के ऊपर निर्भर रहते हैं । प्रकृति पर प्रत्यक्ष निर्भरता ही इस समुदाय के आकार को छोटा व सीमित बनाती है । कृषि जन-जाति के जीवन-यापन का मुख्य आधार है व कृषि कार्य के लिए भूमि का अधिक मात्रा में होना अनिवार्य है। पर्याप्त भूमि के चारों ओर लोग अपना-अपना घर बनाते हैं। इसलिए गांवों का आकार बहुत बड़ा नहीं होता है ।
4. संयुक्त परिवार (Joint Family ) – संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय गांवों की मुख्य विशेषता है। संयुक्त परिवार
में तीन या चार पीढ़ियों के लोग एक साथ एक घर में रहते हैं । इन सब लोगों का भोजन, सम्पत्ति व भूमि साझी होती है। ऐसे परिवारों का संचालन परिवार के वृद्ध व्यक्ति द्वारा होता है। परिवार का मुखिया ही परिवार का निर्णय लेता है व प्रत्येक सदस्य मुखिया की आज्ञा का पालन करता । भारतवर्ष में परिवारों का आरंभिक रूप संयुक्त परिवार प्रणाली ही था। वर्तमान में बदलती परिस्थितियों के साथ परिवार के स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। संयुक्त परिवार एकांगी परिवारों में परिवर्तित हो रहे हैं। इन परिवारों में एक साथ दो पीढ़ियों के लोग अर्थात् पति-पत्नी व उनके अविवाहित बच्चे एक साथ रहते हैं।
5. सरल जीवन (Simple Living ) – ग्रामीण व्यक्तियों का जीवन सरल व सादा होता है । प्रकृति के प्रत्यक्ष
संपर्क के कारण गांवों के व्यक्ति सीधे, सरल व छल रहित स्वभाव के होते हैं। गांव के लोग नगरों की तड़क-भड़क व चमक-दमक के बनावटी जीवन से दूर होते हैं। गांव के लोग अपने परिवार व समुदाय के आदर्शों की रक्षा करते हैं । इन लोगों की आवश्यकताएं सीमित होती हैं। इनमें संघर्ष व मानसिक तनाव भी कम पाया जाता है। गांव के लोग नगरों के जीवन को पसन्द नहीं करते हैं उनकी पसंद साधारण भोजन, शुद्ध हवा व प्रेम सादगीपूर्ण व्यवहार है ।
6. जजमानी व्यवस्था ( Jajmani System) – जजमानी व्यवस्था भी भारतीय ग्रामीण समुदाय की एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत विभिन्न जातियां अपने-अपने परम्परागत व्यवसाय के द्वारा एक दूसरे की सहायता या सेवा करती हैं। ब्राह्मण विवाह, उत्सव व त्योहारों के समय दूसरी जातियों के यहां धार्मिक क्रियाओं को पूरा करवाते हैं इसी तरह धोबी कपड़ा धोने, लुहार लोहे के औज़ार बनाने, नाई बाल काटने, बुनकर कपड़ा बुनने, कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने व चर्मकार जूता इत्यादि बनाने का कार्य एक-दूसरे के लिए करते हैं। इसके अन्तर्गत एक जाति दूसरी जाति की सेवा करती है। इन सेवाओं के बदले में उन्हें अनाज व पैसे दिए जाते हैं । जो व्यक्ति सेवा प्रदान करता है उसे ‘कमीन’ या ‘सेवक’ कहा जाता है। जिन व्यक्तियों को सेवाएं प्रदान की जाती हैं उन्हें ‘जजमान’ कहा जाता है। इस प्रकार व्यवस्था पारस्परिक सहयोग के आधार पर विकसित व्यवस्था है ।
7. सामुदायिक भावना (Community Feeling ) – ग्रामीण समुदाय का आकार सीमित होता है । अतः सदस्यों में अपने गांव के प्रति लगाव व हम की भावना (We Feeling) व भाईचारे की भावना पाई जाती है। ग्रामीण व्यक्ति सम्पूर्ण गांव या समुदाय के कल्याण के बारे में सोचते हैं। सभी लोग प्राकृतिक विपदाओं जैसे- बाढ़, भूकम्प, सूखा, अकाल, महामारी आदि में सामूहिक रूप से मिलकर मुकाबला करते हैं । सब लोग मिलकर पूजा-पाठ व हवन-यज्ञ आदि करते हैं तथा प्राकृतिक शक्तियों को खुश करने का प्रयास करते हैं। गांवों में व्यक्ति खुद को गांव से सम्बन्धित करके गौरव महसूस करता है। बदलती परिस्थितियों के साथ ग्रामवासियों में सामुदायिक भावना में कमी आ रही है।
8. प्रकृति से घनिष्ठ सम्बन्ध ( Close Contact with Nature ) – ग्रामीण समुदाय का प्रकृति से समीपता का
सम्बन्ध पाया जाता है। ग्रामीण लोग शुद्ध वायु, रोशनी, जल, सर्दी व गर्मी आदि प्राकृतिक दशा में जीवन व्यतीत करते हैं। इन लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि होता है। इसके अतिरिक्त मछली पकड़ना, पशु-पालन, शिकार व भोजन इकट्ठा करना आदि क्रियाएं भी ये लोग करते हैं । इन सब कार्यों के लिए व्यक्ति को प्रकृति के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहना पड़ता है। किसान खेतों में काम करते समय हवा, धूप, छाया, वर्षा आदि से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं । ग्रामवासी ठण्डी हवा व पानी को प्राप्त करने के लिए कृत्रिम संसाधनों का सहारा नहीं लेते हैं। ग्रामीण व्यक्ति अपने आपको मौसम के अनुकूल ढालते हैं व प्राकृतिक वातावरण में अपना जीवन-निर्वाह करते हैं ।
9. स्त्रियों की निम्न स्थिति (Lower Status of Women ) – ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति निम्न रही है। अशिक्षा व अज्ञानता के कारण स्त्रियों को अबला एवं दासी के रूप में समझा जाता रहा है। स्त्रियों की निम्न स्थिति के लिए गांव का सामाजिक आकार, जाति-व्यवस्था, प्रथाएं व परम्पराएं, लोकरीतियां, रूढ़ियां मुख्य रूप से उत्तरदायी रही हैं। शिक्षा की कमी के कारण रूढ़िवादी व भाग्यवादी दृष्टिकोण विकसित हुआ । धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध, दहेज प्रथा इत्यादि का विकास उत्तरोत्तर बढ़ता गया जिसका नकारात्मक प्रभाव स्त्रियों पर पड़ा। इन सब कारणों से स्त्री मुख्य रूप से ग्रामीण स्त्री की स्थिति शोचनीय ही होती चली गई। आधुनिक समाज में अनेक परिवर्तनों के कारण स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है।
प्रश्न 10. नगरीय क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने कौन-सी चुनौतियां हैं ?
उत्तर. 1. परिवार के ढांचे में परिवर्तन (Change in Structure of family) — शुरू के समाजों में संयुक्त परिवार की ज़्यादा महानता रही है। पुराने ज़माने में हर जगह पर संयुक्त परिवार पाए जाते थे। पर आधुनिक समय में परिवार के ढांचे में बहुत बड़ा परिवर्तन यह आया है कि अब संयुक्त परिवार काफ़ी हद तक खत्म हो रहे हैं और इनकी जगह केन्द्रीय परिवार आगे आ रहे हैं । केन्द्रीय परिवार के आने से समाज में भी कुछ परिवर्तन आए हैं।
2. परिवारों का टूटना (Breaking up of Families) – पुराने समय में लड़की के जन्म को श्राप माना जाता था। उसको शिक्षा भी नहीं दी जाती थी। धीरे-धीरे समाज में जैसे-जैसे परिवर्तन आए, औरत ने भी शिक्षा लेनी प्रारम्भ कर दी। पहले विवाह के बाद औरत सिर्फ पति पर ही निर्भर होती थी पर आजकल के समय में काफ़ी औरतें आर्थिक पक्ष से आज़ाद हैं और वह पति पर कम निर्भर हैं। कई स्थानों पर तो पत्नी की तनख्वाह पति से ज़्यादा है। इन हालातों में पारिवारिक विघटन की स्थिति पैदा होने का खतरा हो जाता है। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी की स्थिति आजकल बराबर होती है जिसके कारण दोनों का अहंकार एक-दूसरे से नीचा नहीं होता। इसके कारण दोनों में लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है और इससे बच्चे भी प्रभावित होते हैं। इस तरह ऐसे कई और कारण जिनके कारण परिवार के टूटने के खतरे काफी बढ़ जाते हैं और बच्चे तथा परिवार दोनों मुश्किल में आ जाते हैं।
3. पारिवारिक एकता में कमी (Lack of Family Unity ) – पुराने ज़माने में विस्तृत परिवार हुआ करते थे पर आजकल परिवारों में यह एकता और विस्तृत परिवार खत्म हो गए हैं। हर किसी के अपने-अपने आदर्श हैं। कोई एक- दूसरे की दखलअन्दाज़ी पसन्द नहीं करता । इस तरह वह इकट्ठे रहते हैं, खाते-पीते हैं पर एक- 5-दूसरे के साथ कोई वास्ता नहीं रखते उनमें एकता का अभाव होता है।
4. व्यक्तिवादी दृष्टिकोण (Individualistic Approach ) – आजकल के समय में नगर में परिवार के सभी सदस्यों में दृष्टिकोण व्यक्तिगत हो गए हैं। प्रत्येक सदस्य केवल अपने लाभ के बारे में ही सोचता है। प्राचीन समय में तो ग्रामीण समाजों में परिवार की इच्छा के आगे व्यक्ति अपनी इच्छा को दबा देता था । व्यक्तिवादिता पर सामूहिकता हावी थी। व्यक्ति की व्यक्तिगत इच्छा की कोई कीमत नहीं होती थी । परन्तु आजकल के शहरी समाजों में यह चीजें बिल्कुल ही परिवर्तित हो गई हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा के आगे परिवार की इच्छा को दरकिनार कर देता है। उसके लिए परिवार की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। उसके लिए केवल उसकी इच्छा का ही महत्त्व है। व्यक्ति का दृष्टिकोण अब व्यक्तिवादी हो गया है।
5. स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन (Change in the status of Women ) – शहरी स्त्रियों की स्थिति में भी बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले ग्रामीण समाजों में स्त्रियों का जीवन नर्क से भी बदतर था । उसको सारा जीवन घर की चारदीवारी में ही रहना पड़ता था । सारा जीवन उसको परिवार तथा पति के अत्याचार सहन करने पड़ते थे । उसकी स्थिति नौकर या गुलाम जैसी थी । परन्तु शहरी समाजों की स्त्री पढ़ी-लिखी स्त्री है। पढ़-लिखकर वह दफ़्तरों, फैक्टरियों, स्कूलों, कॉलेजों में नौकरी कर रही है तथा आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर है। वह परिवार पर बोझ नहीं है बल्कि परिवार को चलाने वाली सदस्य है । यदि पति को कुछ हो जाए तो वह ही परिवार का पेट पालती है।