NIOS Class 10 Psychology Chapter 25. आत्म-विकास और योग

NIOS Class 10 Psychology Chapter 25. आत्म-विकास और योग

NIOS Class 10 Psychology Chapter 25 आत्म-विकास और योग – NIOS Class 10 के छात्रों के लिए यहाँ पर मनोविज्ञान विषय के अध्याय 25 का पूरा समाधान दिया गया है .जो भी मनोविज्ञान विषय में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है उन्हें यहाँ पर सभी अध्यायों का पूरा हल मिल जायेगा .यह जो NIOS Class 10 Psychology Solutions Chapter 25. Self Development and Yoga दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है .ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए . इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. .इसलिए आप NIOS Class 10 Psychology Chapter 25 आत्म-विकास और योग के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.

NIOS Class 10 Psychology Chapter25 Solution – आत्म-विकास और योग

प्रश्न 1. अपेक्षाकृत मन की अपरिवर्तनीय अवस्थायें कौन-सी हैं ?
उत्तर – व्यक्तिमानस निम्नलिखित परिवर्तनशील स्थितियों में पाया जाता है-

(i) क्षिप्त- अधिकांश समय यह देखा जाता है कि हमारा मन दुनिया में अनुभव की प्रक्रिया के दौरान अपनी रुचि के किसी विषय में भटकता रहता है। मन का यह बाहर भटकना क्षिप्त कहलाता है (क्षिप्त का शाब्दिक अर्थ है भटकता हुआ ) ।
(ii) विक्षिप्त – कभी-कभी हमारी चेतना या बोध बाहर भटकता है, और हम कोशिश करके वापस अन्दर आते हैं। लेकिन फिर से बाहर जाता है। हमारा मन इस तरह विक्षिप्त स्थिति में “अन्दर-बाहर” खेलता है।
(iii) मूढ़ – जब हमारे बोध की क्षमता सचेतन न हो, वह उदास हो और निष्क्रिय दिखता हो, तो वह स्थिति ‘मूढ़’ कहलाती है। किसी व्यक्ति का मन से बाहर होना, निष्क्रिय अथवा सनक में होना मूढ़ मन कहलाता है।
(iv) एकाग्र – योग – अभ्यास करते समय आप अपना ध्यान एक विशेष वस्तु पर केन्द्रित करना सीखते हैं। चेतना की इस स्थिति को एकाग्र मन कहा जाता है, जो दिन-प्रतिदिन की सक्रियता और उच्च लक्ष्यों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। मन एकाग्र होना एक बड़ी उपलब्धि है।
मानव चेतना की परिवर्तनशील अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ सापेक्ष स्थिर अवस्थाएं भी होती हैं। इन्हें मानव मन की नियमित अवस्थाएँ भी कहते हैं-

(i) जाग्रति – यह पूर्ण बोध की अवस्था है। इस में व्यक्ति विवेक प्रत्येक समय सक्रिय व जाग्रत रहता है।
(ii) स्वप्न – यह मानव मन की स्वप्नावस्था है इसमें कुछ लोग इच्छापूर्ति का खेल खेलते हैं।
(iii) सुषुप्ति – गहरी नींद की अवस्था है। इस अवस्था में सपने नहीं आते।
(iv) तुरीयावस्था – पूर्वोक्त तीनों अवस्थाओं के बाद भी एक चौथी अवस्था तुरीयावस्था होती है इस अवस्था में व्यक्ति गहन ध्यान में स्थित हुआ स्थान व समय को भूल जाता है। जैसे चेतना की इस तुरीयावस्था में व्यक्ति चिन्तन में बैठ जाता है तो उसे यह ज्ञान नहीं रहेगा कि वह कहां बैठा है और कितनी देर से बैठा है?

यही वास्तव में वह अवस्था है जहां व्यक्ति की चेतना ब्रह्म या सार्वभौम चेतना से अलग हो जाती है। ऐसी अवस्था में पहुंचने के बाद, वह निर्बाध ऊर्जा प्राप्त करता है।
लंबे समय तक ऐसी स्थिति में रहने से व्यक्ति की चेतना के सामान्य स्तर में महत्वपूर्ण बदलाव आता है।

प्रश्न 2. योग कैसे हमारे व्यवहार को आकार देता है, स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – मानव की सहज वृत्ति है कि वह जीवन में खुश तथा सफल बनना चाहता है और इस दृष्टि से योग की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। योग के माधयम से अभिवृत्तियों, स्वस्थ चिन्तन और सुखी जीवन जीने के स्वप्न को पूरा किया जा सकता है। आज के तनाव युक्त जीवन में भी योग की प्राचीन ज्ञान सम्पदा का सकारात्मक उपयोग करते हुए जीवन को खुश और स्वस्थ बनाया जा सकता है। इस प्रकार की कुछ उपयोगी विधियां निम्नलिखित हैं-

(क) अपने वातावरण के प्रति शिकायत न करें ( सन्तुष्टि ) – अक्सर लोग माता-पिता की सोच या व्यवहार, सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्थिति से सन्तुष्ट नहीं होते और हमेशा असन्तुष्ट रहते हैं। कुछ लोग तो अपनी बुद्धि या शरीर की बनावट से भी दुखी हैं। दूसरों को देखकर लोग घबरा जाते हैं। दूसरों से अक्सर तुलना करते हैं। इस व्यक्ति ने नकारात्मक सोच विकसित की है। यह शिकायत करते रहना एक व्यक्ति के लिए बुरा होता है।

महान लोग अपनी शारीरिक कमियों या विपरीत परिस्थितियों का सामना करके बड़े होते हैं। ध्यान देने और समझने की बात यह है कि सभी को कोई न कोई गुण चाहिए। यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने गुणों को जानता है और उन गुणों का उपयोग करते हुए अपने लक्ष्यों को पूरा करता है।

उस व्यक्ति की सामाजिक दृष्टि और शैक्षणिक क्षमता कम हो सकती है। यदि कोई व्यक्ति पुस्तकीय ज्ञान में उतना कुशल नहीं है, तो मशीनी काम में वह कुछ नया कर सकता है जो उसके लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रेरित कर सकता है। हम देखते हैं कि कलाकार, इंजीनियर, गायक, डॉक्टर, शिक्षक सभी क्षेत्रों में अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार काम करते हैं और परिणाम मिलता है। यही कारण है कि व्यक्ति अपने गुणों और सामर्थ्य के अनुसार लक्ष्य निर्धारित करे और उसे पूरा करने की पूरी कोशिश करे। योग इस दिशा में व्यक्ति को उसके गुणों और शक्ति सामर्थ्य को पहचानने में मदद करता है; यह एक शांत, विचारशील मनःस्थिति देता है।

(ख) अपने शरीर को प्रशिक्षित करें – किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए व्यक्ति को योगासन और सूर्य नमस्कार करके आलस्य दूर करना चाहिए। ये उपकरण व्यक्ति को स्फूर्ति देते हैं। तनाव और बीमारी से बचाते हैं इसका सीधा लाभ यह है कि व्यक्ति अपना पूरा ध्यान लक्ष्य पर लगा सकता है।

क्या आप जानते हैं कि शरीर को प्रशिक्षित कैसे करें? इसके लिए आहार-विहार को नियंत्रित करना होगा। पाचक, स्वस्थ और सन्तुलित भोजन ही खाना चाहिए। विश्राम पर भी पूरा ध्यान देना होगा। व्यक्ति एक निश्चित समय पर पूरी नींद ले। कार्य में उत्साह के लिए शरीर को तनावमुक्त रखना चाहिए। आलस्य की भावना भी बनी रहती है अगर आप पूरी तरह से सो नहीं रहे हैं। योगासन करके और नियमित रूप से भोजन और विश्राम करके एक व्यक्ति स्वस्थ रह सकता है।

(ग) मस्तिष्क को प्रशिक्षित करें – यौगिक क्रियाएं करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को शिक्षित करना चाहिए। यही कारण है कि मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने से व्यक्ति सफल होता है ऐसा नहीं करेंगे तो व्यक्ति का मस्तिष्क कमजोर हो जाएगा। एक बार स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि उन्हें पुष्ट युवक चाहिए जिनकी पेशियां फौलादी हों और आत्मविश्वास इस्पात की तरह हो।

नकारात्मक सोच और स्वयं पर ध्यान नहीं देने वाले व्यक्ति स्पष्ट रूप से सफल हैं। अक्सर लोग अपनी लिखी पुस्तकें दूसरों को नहीं देना चाहते क्योंकि वे सोचते हैं कि इससे उनका ज्ञान चुरा लिया जाएगा। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि ज्ञान को बांटने से उसकी वृद्धि होगी। ध्यान रहे कि दूसरों पर निर्भर रहना हानिकारक है। विश्व में ऐसा कोई नहीं है जिसके बिना जीना असंभव है। कितने लोगों ने बहुत कम से बहुत कुछ बनाया है। प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति के पास जो कुछ भी है, वह उसका कितना सटीक, सकारात्मक और पूरी तरह से उपयोग कर सकता है? हम शायद अपनी पूरी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाते।

नकारात्मक सोच ही असफलता का सबसे बड़ा कारण होता। हम एक गिलास है। गिलास का आधा भाग पानी से भरा है और आधा खाली है। गिलास का आधा खाली होना नकारात्मक सोच वालों को चिन्ता, अवसाद और असंतोष का कारण बनता है, जबकि गिलास का आधा भरा होना सन्तोष और खुशी का कारण बनता है। योग क्रियाएं इस विचार को पुष्ट करती हैं। योग मन और शरीर दोनों को सकारात्मक बनाने में मदद करता है।

(घ) अपनी बुद्धि को प्रशिक्षित करें – चुनौतीपूर्ण कार्य करते रहना चाहिए ताकि व्यक्ति का मस्तिष्क निरंतर सक्रिय रहे। ऐसा नहीं किया गया तो मस्तिष्क जंग लग सकता है और प्रभावी कार्य करने की क्षमता खो देगा। यह भी सच है कि व्यक्ति सिर्फ अपने मस्तिष्क की पूरी शक्ति का प्रयोग कर सकता है। इसलिए मस्तिष्क को लगातार व्यायाम नहीं करने से अक्सर वह शीघ्र थक जाता है।

असल में, स्वप्न देखना मस्तिष्क को खुराक देता है और सपनों को सच करना बुद्धि को बल देता है, इसलिए व्यक्ति को अपने मस्तिष्क को सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। यही कारण है कि व्यक्ति को अपने विचारों को स्पष्ट करना चाहिए और अपने निर्णय पर अडिग रहना चाहिए। योग बुद्धि को प्रशिक्षित करने से व्यक्ति का आत्मविकास और चरित्र निर्माण होता है। अपने शब्दों पर ध्यान दें: दो शब्द ही विचार बनाते हैं। सोचने पर ध्यान दें, क्योंकि सोचने से आदत बनती है। याद रखें कि आदतें ही चरित्र बनाती हैं। व्यक्ति का भाग्य चरित्र से बनता है, इसलिए चरित्र पर ध्यान दें। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि योग व्यक्तिगत विकास में महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 3. नियमों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर – योग के आठ सोपानों में यम और नियम का उल्लेख किया गया है। नियमों का पालन व्यक्ति शरीर व मन को पवित्र करने के लिए किया जाता है ये नियम निम्नलिखित हैं-

(i) शौच – इसमें शरीर व मन को स्वच्छ रखने का भाव निहित है। नित्य प्रति स्नान, दंत कुल्ला, स्वच्छ जल पीना, ताजा भोजन तथा नित्य कर्म से निवृत्ति आती हैं। शौच का आशय मन की पवित्रता से भी है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहम व मत्सर से मुक्ति भी शौच क्रिया के लिए महत्त्वपूर्ण है।

(ii) सन्तोष- इसका अर्थ है सन्तुष्टि । व्यक्ति को हर काम में उत्कृष्ट योगदान देना चाहिए। नुकसान और लाभ दोनों में समान भाव से व्यवहार करना सन्तोष है। यह एक अंदरूनी परिणाम है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि कर्म करना व्यक्ति का धर्म है क्योंकि यह एक ही कारण है। फल नहीं चाहना चाहिए।

(iii) तप- इसका अर्थ है तपस्या या प्रायश्चित इसके तीन स्तर या रूप हैं। कायिक तप – शरीर से किए जाने वाला तप-जैसे उपवास, नियमित व्यायाम आदि । वाचिक तप- वाणी पर नियंत्रण इसी तप की कोटि में आता है। मानसिक तप-यह तप मन की पवित्रता के लिए किया जाता है। व्यक्ति को इसमें मन में आने वाले, कुविचारों- भावों, आसक्तियों से मुक्त रखना होता है।

(iv) स्वाध्याय – योग सम्बन्धी सिद्धान्तों का अध्ययन उसी कोटि में आता है।

(v) ईश्वर प्राणिधान – ईश्वर का नाम जप सब कुछ ईश्वर का ही रूप देखना, ईश्वर से निरन्तर संपर्क बनाए रखना नियम के इसी उपभाग का कार्य पक्ष है।

आत्म-विकास और योग के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न 1. योग के द्वारा आत्म-विकास कैसे किया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- मनोवैज्ञानिक अध्ययन ने दिखाया है कि योग एक व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। योग एक व्यक्ति का जीवन सुंदर और जीने योग्य बनाता है। वस्तुतः जीवन का कोई भी क्षेत्र योग के योगदान से अछूता नहीं है। इसके योगदान के प्रमुख क्षेत्र निम्न हैं- योग कार्य व क्षेत्र में कार्य के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण को बदलने में सक्षम है।
• व्यक्ति की रचनात्मकता में वृद्धि करता है ।
• दूसरे लोगों के साथ सम्बन्धों को मजबूत बनाता है।
• योग चीजों को लौकिक सोच से ऊपर उठाता है।

योग जीवन में सफलता का अर्थ ही नहीं, महत्त्व भी प्रतिपादित करता है, क्योंकि देखा जाए तो सफलता किसी लक्ष्य के प्रति आत्मविश्वास से भरे सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ अनथक परिश्रम की देन है, इसी को आत्मविश्वास कहते हैं।

(क) अध्ययन में योग की भूमिका छात्र – अध्ययन के बारे में विद्यार्थियों की आम शिकायत है कि वे कई घंटे पढ़ने के बाद भी कुछ याद नहीं रख पाते। इसका मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति पाठ पर स्थिर या केंद्रित नहीं रह पाता, बल्कि भटकता रहता है।

लम्बी व गहरी सांस लेना यौगिक आसनों और प्राणायाम करते समय स्वाभाविक है। इससे आप एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना सीख जाते हैं। तथ्यों और विचारों का अच्छा ज्ञान व्यक्ति को मिलता है जब वह पाठ पर ध्यान देता है। इससे तथ्यों को याद रखना काफी आसान होता है। योग से स्मृति और सीखने की क्षमता में काफी वृद्धि होती है, यानी क्षमता का विकास होता है। यही कारण है कि परीक्षा के दौरान मन अस्थिर नहीं रहता। अक्सर अप्रत्याशित प्रश्न भी व्यक्ति को अस्थिर कर देते हैं।

यह देखा गया है कि कठिन प्रयासों के बावजूद भी लोगों को मनचाहा परिश्रम नहीं मिलता, जिससे वे चिंतित और अवसादित हो जाते हैं।
नियमित रूप से योग करना आपको चिंता और अवसाद से बचाता है। गीता में, कृष्ण ने अर्जुन को इसी योग धर्म की शिक्षा दी है: किसी को अच्छे काम करना चाहिए और फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। फल ईश्वर को दें।

(ख) सम्बन्ध- जिस वातावरण में एक व्यक्ति रहता है, उससे जुड़े भावनात्मक संबंधों के कारण खुशी और दुःख दोनों प्रकट हो सकते हैं। मित्रों, बंधुओं, संबंधियों, परिवार के सदस्यों और कार्यक्षेत्र में काम करने वाले सहकर्मियों के साथ स्थापित संबंध व्यक्ति में पूर्णता का भाव जगाते हैं या उसकी तलाश करते हैं। योगाभ्यास में प्रतियोगिता की जगह सहभागिता आती है। निःस्वार्थ प्रेम और सहयोग भाव स्वार्थी प्रेम की जगह ले लेते हैं। इसी तरह मित्रता में बाहरी आकर्षणों की जगह व्यक्ति के अंदरूनी गुणों का असर होता है।

यहाँ पतंजलि का उद्देश्य स्पष्ट है कि जीवन में उच्च गुणों को प्राथमिकता देने वालों से दोस्ती करें। उनका भी उपयोग करते हैं। ऐसे लोगों के साथ मिलकर काम करने से बहस या संघर्ष नहीं होता। दुःखी लोगों के प्रति करुणा होनी चाहिए। व्यक्ति को स्वार्थी, आत्मकेंद्रित नहीं होना चाहिए। दूसरों की खुशी में खुश होना एक अच्छे व्यक्ति का लक्षण है। ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए। दुष्ट प्रकृति से दूर रहना ही सही है।
वास्तव में, व्यक्ति को अपनी महत्वपूर्ण मानसिक और सांवेगिक ऊर्जा को बर्बाद नहीं करना चाहिए। व्यक्ति को अपनी प्रतिक्रियाओं के प्रति सतर्क रहकर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं देनी चाहिए क्योंकि अप्रिय, दुष्ट या दुर्भाव युक्त व्यक्तियों के प्रति आक्रोश, चिढ़न या तनाव से स्वयं का मन विकार ग्रस्त होता है। यह व्यक्ति को सांवेगिक रूप से विकसित करेगा।

(ग) कार्य – व्यक्ति चाहे कोई भी काम करे, काम में खुश होना बहुत महत्वपूर्ण है। यह देखने में आता है कि लोगों के मन में कार्य आपस में कई प्रकार की राजनीति है, इसलिए किसी भी कार्य को आत्मभिव्यक्ति और विकास का एक अवसर मानना चाहिए। कर्मचारियों और अधिकारियों या प्रबन्धकों के बीच काफी संघर्ष है। ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। जब कोई काम करता है, उसे यह महसूस करना चाहिए कि वह क्या दे सकता है, न कि यह महसूस करना चाहिए कि काम से उसे क्या मिलता है।

सही तरीके से बैठकर गहरी सांस लेने से व्यक्ति का तनाव कम होता है, जो इस प्रक्रिया पर काफी प्रभाव डालता है। थोड़ी देर बैठकर अपने श्वास पर ध्यान देने से लोगों को आराम मिलता है। व्यक्ति अपने काम में रचनात्मक और सकारात्मक होना चाहिए। काम को बेहतर ढंग से करने की कोशिश करते रहना चाहिए। व्यक्ति को अपने दैनिक कामों में भी खुशी मिलनी चाहिए। इसलिए, गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कर्म करने को कहा था। न चाहते हुए भी उत्कृष्ट काम करना चाहिए।

(घ) स्वास्थ्य तथा रोग – ठीक से काम करने के लिए व्यक्ति को शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना चाहिए। यह विचार करने योग्य है कि कोई व्यक्ति बीमार क्यों हो जाता है? कारण स्पष्ट है: जब किसी व्यक्ति के शारीरिक या मानसिक संतुलन बिगड़ता है, तो वह रोगग्रस्त हो जाएगा। अक्सर व्यक्ति के कार्यों या अन्य संघर्षों से उसके जीवन या जीवनी शक्ति में बाधा आती है। इससे व्यक्ति को बीमारी होती है।
अवसाद और रोग एक तरह से नकारात्मक हो सकते हैं। वे जीवनी शक्ति को बाधित करते हैं, लेकिन प्राणायाम और ध्यान से इन नकारात्मक परिस्थितियों से छुटकारा पाकर स्वस्थ और निरोग रह सकते हैं।

प्रायः शरीर की आवश्यकताओं के अनुसार जीवनी शक्ति का प्राणिक शक्ति का प्रवाह अनजाने में होता रहता है। लेकिन यौगिक क्रियाओं और इच्छाशक्ति से हम इस स्वचालित प्रक्रिया को नियंत्रित कर सकते हैं। यह संभव है कि पूरे तंत्र को ऊर्जावान बनाया जाए, जिससे अपने किसी अंग या दूसरों को पूरी तरह से स्वस्थ और स्वस्थ बनाया जा सकता है। प्राणिक ऊर्जा, जो हमारी इच्छाशक्ति से चालित होती है, विश्वजनीन स्रोतों से अधिक होती है और शरीर के विभिन्न भागों में आवश्यकतानुसार पहुँचती है। स्वस्थ रहने के लिए जीवन शक्ति और इच्छा शक्ति मिलकर काम करनी चाहिए।

प्रश्न 2. योग क्रिया में प्रेरणा तथा उत्सुकता के महत्त्व को प्रतिपादित कीजिए ।
उत्तर – योग चित्तवृत्तियों को नियंत्रित कर व्यक्ति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। इस प्रक्रिया में उत्कृष्टता और प्रेरणा भी देखे जाते हैं। ऊँचाई पर पहुंचने के लिए पहली बार सफलता नहीं मिलती; अपने लक्ष्य को पाने के लिए कई बार असफलता झेलनी पड़ती है। निरंतर प्रयास करना चाहिए।

इसे इसी तरह समझा जा सकता है। बड़ौदा के महाराज सायाजी राव गायकवाड़ के बारे में कई प्रसिद्ध कहानियां हैं। पूर्व के महाराज को अपनी पत्नी से कोई संतान नहीं थी, इसलिए वह किसी बच्चे को अपनाना चाहते थे। अपने महल में बहुत से युवा आए। विभिन्न स्थानों पर कुछ बच्चे आकर रोने लगे, जबकि कुछ बच्चे वहाँ की रोशनी से घबरा गए। लेकिन एक लड़का साहस से बैठा हुआ था। बच्चे, तुम यहाँ क्यों आए हो, महाराज ने पूछा।”मैं यहाँ का राजा बनने वाला हूँ,” उसने दृढ़ता से कहा।और उसी ने चुना गया और अपनी योग्यता भी साबित की। वह लगातार पढ़ाई करता था, प्रार्थना करता था और व्यायाम करता था।

गीता में योग का विवेचन करते हुए कहा गया है कि कर्म में कौशल प्रेरणा से आता है और योग से। यह व्यक्ति की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वह यह संकल्प ले कि वह जो कुछ भी करेगा, पूरी शक्ति से करेगा और उच्च कोटि का करेगा, क्योंकि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। यह काम करने वाले पर निर्भर करता है कि वह अपने काम को उत्कृष्टता से पूरा करें या नहीं।
एक और बात यह है कि हमारे कार्यों का स्पष्ट रूप से दो उद्देश्य या प्रयोजन है: एक आर्थिक है, यानी एक व्यक्ति कमाई करता है।
सन्तुष्टि का दूसरा अगोचर लक्ष्य कार्य व्यक्ति को आत्मसंतुष्टि और आत्मसम्मान देता है क्योंकि जब दूसरों ने उसके काम की प्रशंसा की तो वह खुद को गौरवान्वित महसूस करता है।

इस परिप्रेक्ष्य में, महान लोगों और महिलाओं का जीवनक्रम आदर्श लगता है— ये बड़े नेता प्रभावी नहीं थे। लक्ष्य सदा प्रयत्नशील रहा। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे अत्यधिक मांग करने वाले संबंधों से दूर भागते थे। असल में, यह योग है।
जिन लोगों ने अपनी शक्तियों को अपने लक्ष्य की ओर लगाया, मन, बुद्धि और शरीर को सदा काम करने के लिए तैयार रखा, वे ही जीवन में महत्वपूर्ण काम करने में सफल होते हैं। महान बनने के लिए बड़े सपने पाले और उन्हें मन, वचन और कर्म से पूरा करने के लिए जुट जाए। यह संकल्प ध्यान और एकाग्रता के स्तर पर योग के क्षेत्र में आता है, इसलिए स्पष्ट है कि स्वप्न व्यक्ति को प्रेरित करते हैं और उसे अपने सपनों को पूरा करने के लिए अधिक उत्सुक बनाते हैं। योग साधना है।

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