NIOS Class 10 Psychology Chapter 8 अभिप्रेरणा और संवेग
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NIOS Class 10 Psychology Chapter8 Solution – अभिप्रेरणा और संवेग
प्रश्न 1. प्रेरित व्यवहार के तीन उदाहरण लिखें। अभिप्रेरणा की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को लिखिए ।
उत्तर – काम करना, पढ़ना और खेलना प्रेरित व्यवहार हैं। मानव व्यवहार, क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं आदि सभी कुछ विशिष्ट व्यवस्थाओं से संबंधित हैं। यह सब अनियंत्रित, असंयमित या अनायास नहीं होते; बजाय इसके, कुछ प्रेरक इनका संचालन करते हैं। दैनिक जीवन में किसी व्यक्ति की सभी क्रियाएं, प्रतिक्रियाएं, गतिविधियां, इच्छाएं, आवश्यकताएं और रुचि व आशा से प्रभावित संचालित या निर्देशित होते हैं, जो व्यक्ति स्वयं या अन्य से अपेक्षा करता है। ध्यान दें कि हमारे जीवन में, जैसे कि हम पढ़ते हैं, खेलते हैं, खाते हैं, स्कूल जाते हैं, मित्रों से मिलते हैं, किताबें पढ़ते हैं, टेलीविजन देखते हैं, रेडियो पर गाने सुनते हैं, सभी उद्देश्यपूर्ण क्रियाएं हैं और हमें प्रेरणा देते हैं।
वस्तुत: प्रेरणा वह शक्ति है, जो व्यक्ति को प्रेरित – निर्देशित करती है। व्यक्ति किसी समय क्या करता है, क्या कहता है? ये सभी व्यक्ति की प्रेरणा से निर्देशित होता है और प्रेरणा विशुद्ध अन्दर का मामला है। हम अक्सर देखते हैं कि प्रेरकों के प्रति हम हमेशा सचेत नहीं रहते और बहुत-सी इच्छाएं और प्रेरक ऐसे होते हैं जिनसे हम अवगत नहीं होते, लेकिन वे हमेशा हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि यदि हम अपनी आवश्यकताओं और उससे जुड़ी प्रेरणा को जान लें, तो हम भली प्रकार जान सकते हैं कि हम वास्तव में क्या हैं? यानी हमारी आवश्यकताएं और हमारी प्रेरणा हमें स्वयं को जान लेने में सहायक होती हैं। इसी के बल पर हम स्वयं को संतुलित, नियंत्रित एवं व्यवस्थित कर सकते हैं।
यही वह अन्तर्दृष्टि है जो हमारे व्यवहार को ही नहीं, बल्कि दूसरों के व्यवहार को जानने में भी सहायक हो सकती है। अतः स्पष्ट है कि अभिप्रेरणा व्यक्ति की सहज कार्य-विधियों एक सुनिश्चित रूप प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है।
प्रश्न 2. मास्लो द्वारा बताई गई आवश्यकताओं के पदानुक्रम के प्रमुख घटकों की व्याख्या कीजिए । किन प्रेरकों को पहले सन्तुष्ट किया जाता है और इसका क्या कारण है तर्क दीजिए ।
उत्तर- मनोवैज्ञानिक अब्राहम मास्लो ने आवश्यकताओं के विभिन्न स्तरों को स्वीकार किया है। मूल प्रवृत्ति एक पूर्वनिर्धारित प्रक्रिया है, जिसका जीव-वैज्ञानिक आधार है और भूख-प्यास, काम भावना, बच्चों की देखभाल आदि के लिए आवश्यक है। इस मामले में, मनुष्य में सीखने की प्रवृत्ति की भूमिका पहले से ही निर्धारित मूल प्रवृत्तियों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है।
व्यक्ति का व्यवहार आवश्यकता से निर्धारित होता है, जो एक प्रकार की आंतरिक कमी है। वास्तव में, व्यक्ति के शरीर में आवश्यक तत्त्वों की कमी अधिकतर आवश्यकता का कारण बनती है। शरीर सम्बन्धी (जैविक) आवश्यकताओं के अलावा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं भी होती हैं, जैसे किसी से जुड़े होने, सफलता हासिल करने, पहचान बनाने और मान्यता पाने आदि। ये सभी मनोवैज्ञानिक स्तर पर व्यक्ति के व्यवहार पर प्रभाव डालते हैं।
कोशिकाएं और ऊतकों अक्सर व्यक्ति की जैविक आवश्यकताओं को निर्धारित करते हैं। व्यक्ति की लैंगिक आवश्यकताएं, जैसे भूख और प्यास, इसी कोटि की होती हैं और सरल हैं। हाँ, यह बात अलग है कि एक व्यक्ति अपनी जैविक आवश्यकताओं को कैसे पूरा करता है। यह उसके सामजिक व्यवहार की जानकारी पर निर्भर करता है।
मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं का जैविक आधार ढूंढना एक कठिन काम नहीं है। ये सार्वभौमिक आवश्यकताएं हैं, और सामाजिक सांस्कृतिक कारक इनकी अभिव्यक्ति को निर्धारित करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं
उपलब्धि इच्छा – व्यक्ति अपने जीवन में कुछ न कुछ पाना चाहता है, यही उपलब्ध करने की इच्छा है। इसमें उसका लक्ष्य ऊंचे से ऊंचे पद, प्रतिष्ठा को पाने का होता है। इसी क्रम में वह दिए गए कार्यकलापों का अच्छे स्तर पर प्रदर्शन करता है और अपने प्रतिद्वंद्वियों से उच्चतर कार्य करके दिखाता है। इस प्रकार वह अपने आस-पास के वातावरण में परिवेश में एक स्थान पाता है, सम्मान पाता है। उपलब्धि पाना व्यक्ति की आन्तरिक आवश्यकता बन जाती है।
दूसरों से जुड़ने की इच्छा – यह ऐसी आवश्यकता है जिसमें व्यक्ति किसी से मित्रता या संग की कामना करता है। दूसरों को प्रसन्न करने या दूसरों का प्यार पाने की इच्छा भी ऐसी ही मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है, जो व्यक्ति को एक पूर्णता का अनुभव कराती है।
शक्ति की इच्छा – व्यक्ति में सामर्थ्य, क्षमता अथवा शक्ति की इच्छा स्वभावत: होती है। इसमें वह दूसरों पर नियंत्रण व नेतृत्व करना तथा अपने को दूसरों से अधिक सामर्थ्यवान बनाना चाहता है।
समझ होना – यह आवश्यकता विशुद्ध रूप से व्यक्ति के परिवेश को जानने से जुड़ी है। अपने परिवेश को भली प्रकार जानकर ही व्यक्ति अपने परिवेश में परिवर्तन करता आया है। परिवेश को जान पाना तभी संभव है, जब उसमें जानने और समझने की उत्सुकता पैदा हो, इसलिए व्यक्ति सदा ही अपने आसपास को समझने में प्रयत्नशील रहता है।
मान्यता तथा अनुमोदन की इच्छा -यह भी एक आम प्रवृत्ति है कि व्यक्ति अपने काम, निर्णय, विचार या टिप्पणी के लिए सामाजिक स्वीकृति और अनुमोदन चाहता है। यह मान्यता या प्रशंसा के रूप में देखा जाता है, और प्रशंसा की भावना ही व्यक्ति को अपने काम करने के लिए प्रेरित करती है।
इस तरह देखें तो ये सभी इच्छाएं आवश्यकता के रूप में अकेले काम नहीं करतीं; कभी-कभी एक इच्छा दूसरी इच्छा को पार करती है, इसलिए व्यक्ति की सभी क्रियाएं जैविक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं और अभिप्रेरणाओं से प्रभावित होती हैं।
हमारे देश में बहुत से ऋषि, महात्मा, विद्वान और सन्त पुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी सारी सुख-सुविधाओं (जैविक और मनोवैज्ञानिक) को छोड़कर जीवन में सार्थकता खोजने की चेष्टा की है। महान लोगों जैसे गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, गुरु नानक, कबीर, महर्षि रमण, अरविन्द, स्वामी दयानन्द और महात्मा गांधी ने अपना जीवन समाज की सेवा और सुधार में समर्पित किया।
प्रश्न 3. हमारे व्यवहार को संगठित करने में संवेगों एवं अभिप्रेरणाओं की भूमिका का उपयुक्त उदाहरणों सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर- मानव जीवन में हर क्षण अलग-अलग घटनाओं से गुजरता है। व्यक्ति की रुचि या अरुचि को व्यक्त करने वाले ये अनुभव हैं। यानी, व्यक्ति का निर्णय संवेग पर निर्भर करता है। वह चुनता है जो उसे अच्छा लगता है, रुचिकर लगता है या उसे भाता है। अनुभवों पर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि कोई भी अनुभव संवेगों से अछूता नहीं है। जैसे इच्छाएं या कामनाएं एक व्यक्ति को निर्देशित करती हैं, उसी प्रकार संवेग भी महत्वपूर्ण हैं।
प्रसन्नता और क्रोध अलग-अलग स्थिति हैं। क्रोध या खुशी की स्थिति से कुछ बिल्कुल अलग है। हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अपने सांवेगिक अवस्था पर निर्भर करता है।
नव रस (नव मुद्राएं) भारतीय नृत्य विधान और नाटक में आचार्यों ने बनाया है। प्राथमिक संवेग ये नव रस हैं। इन्हें इस तरह देखा जा सकता है-
शृंगार, हास्य, शान्त, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स व अद्भुत एवं करुण रस। एक संवेग ईर्ष्या भी है, पर असल में यह कई संवेगों का निश्चित रूप है। कुछ संवेग नीचे चित्र में दी गई मुद्राओं से जाने जा सकते हैं-
अनुभव ने दिखाया है कि लोग अपने सकारात्मक संवेगों को बढ़ा सकते हैं और अपने नकारात्मक संवेगों को कम कर सकते हैं। इसके लिए व्यक्ति को अपने विचारों और व्यवहार पर ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी कार्य में किसी कारण से असफल हो जाता है, तो वह निराशा, हताशा या क्रोध का तुरंत अनुभव करेगा। इस दशा को कई प्रकार से देखा जा सकता है-
• निराश होकर सोचना कि मैं जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता
• यह मानना कि दूसरों या बाह्य घटनाओं ने मेरी सफलता के रास्ते में बाधा डाली है, यानी दूसरों पर दोष लगाना
• अपना आत्मावलोकन करते हुए सफलता के रास्ते में रह गई कमियों या कम प्रयासों पर विचार करना
• सोचना कि कोशिश करने के बाद भी सफलता क्यों नहीं मिली
इस पूरी प्रक्रिया से स्पष्ट है कि पहली दो स्थितियां नकारात्मक संवेगों को उत्पन्न करेंगे और अंतिम दो स्थितियां सकारात्मक संवेगों को विकसित करेंगे। इसलिए अंतिम दोनों ही वाक्य व्यक्ति की सांवेगिक परिपक्वता को दिखाते हैं। इस सांवेगिक परिपक्वता को मनोवैज्ञानिकों ने सांवेगिक बुद्धि कहा है। उन्हें लगता है कि सफलता के लिए न सिर्फ बुद्धि ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि संवेदी बुद्धि भी महत्वपूर्ण है।
स्पष्ट है कि व्यक्ति के विचार और व्यवहार सांवेगिक अवस्थाओं में अलग-अलग होते हैं और व्यक्ति के व्यवहार में दिखने वाले संवेग भी दूसरों को प्रभावित करते हैं। नकारात्मक संवेग नुकसानदायक हैं
अभिप्रेरणा और संवेग के अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
प्रश्न 1. अचेतन प्रेरणा क्या है ?
उत्तर – जन्म से ही व्यक्ति अनजाने में कई अनुभवों से गुजरने लगता है। वह प्रयास करके इनमें से कुछ को याद कर सकता है, लेकिन कभी-कभी ऐसे व्यवहार भी होते हैं। लेकिन वह उन्हें याद नहीं कर सकता। मनोविज्ञान के पितामह सिगमण्ड फ्रायड ने ऐसे अनुभवों को तीन श्रेणियों में विभक्त करके प्रस्तुत किया है-
(i) चेतन अनुभव
(ii) अचेतन अनुभव
(iii) अवचेतन अनुभव
फ्रायड का मानना है कि व्यक्ति के मानस का अचेतन हिस्सा बहुत छोटा है और चेतन हिस्सा बहुत बड़ा है। यह अचेतन क्षेत्र है जहां मृत यादें दमित इच्छाएं बनकर रहती हैं। मृत इच्छाएं और यादें, जो अचेतन में रहती हैं, हमेशा सुप्त नहीं रहतीं। ये दमित इच्छाएं स्वप्न, फंतासी अथवा अर्द्ध सुसुप्त अवस्था में प्रकट होकर उभरने लगती हैं जैसे ही व्यक्ति का चेतना पर नियंत्रण खत्म हो जाता है या कम हो जाता है। साथ ही व्यक्ति की भावनाओं और प्रतिक्रियाओं पर अव्यक्त रूप से प्रभाव डालता है।
गवत्गीता और उपनिषदों में व्यक्त भारतीय विचारधारा से स्पष्ट है कि व्यक्ति की सभी इच्छाएं और कामनाएं चिंता से जन्म लेती हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को भीतर की चिह्न भी दिखाई देती हैं। (अंत:करण) की सत्यता का पता लगाना चाहिए। आत्मा ही है। हम केवल दूसरों द्वारा हमारे बारे में बनाई गई धारणाएं हैं। यह सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि इसने लोगों को शताब्दियों से आकर्षित किया है, और सभी ऋषि-मुनि, संत, विचारक और दार्शनिक इसके उदाहरण हैं। भारत ने मनुष्य के अंतर्जगत को समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
प्रश्न 2. भारतीय विचारधारा के आधार पर मनुष्य की इच्छा व अभिप्रेरणा का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर- प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में एक लक्ष्य चुनता है, क्योंकि लक्ष्य ही प्रेरक व्यवहार का गन्तव्य है । भारतीय विचारधारा मनुष्य के इन प्रयासों को अलग तरह से समझाते हुए इसे चार भागों में वर्गीकृत किया है-
धर्म- यह पक्ष कर्त्तव्य एवं परोपकार से जुड़ा है जैसे दूसरों की सहायता करना अपने कर्त्तव्य का ठीक से पालन करना तथा जीवन के लिए कुछ मूल्यों – सिद्धान्तों का निर्धारण करते हुए दूसरों के सुख में सुखी होना अथवा दुख में दुःखी होना । इस तरह धर्म वास्तव में एक व्यवस्थित जीवनयापन के लिए आन्तरिक (वैचारिक) परिपक्वता लाता है।
अर्थ- धन, या वैभव, एक व्यक्ति को सुरक्षित रखता है और उसे आत्मनिर्भर बनाता है। इससे धन, समाज और भावनाएं सुरक्षित हैं। धन, वस्तुएं, यश या शक्ति किसी भी स्तर पर अर्थ हो सकता है। यह व्यक्ति को अधिक आत्मविश्वास और एक प्रकार की सुरक्षा का भाव देता है।
काम – इसका सीधा अर्थ है व्यक्ति द्वारा स्वयं को आराम और सुख देने वाला क्रियाकलाप । इसका सीधा सम्बन्ध इंद्रिय सुख से होता है। इसमें स्वादिष्ट भोजन, संगीत कला आदि जिनसे व्यक्ति को बौद्धिक (मानसिक) सुख प्राप्त होता है । यौन सुख से इसका मुख्य सरोकार है।
मोक्ष – यह एक कठोर तथ्य है तथा भारतीय मनोविज्ञान की अद्भुत देन है। अक्सर भजन-कीर्तन, धार्मिक प्रवचन आदि इसी भाव के परिचायक हैं।
असल में मोक्ष का स्पष्ट अर्थ है स्वतंत्रता या सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्ति । प्रश्न उठता है यह बन्धन मुक्तता या स्वतंत्रता किससे ? इसीलिए सांसारिक शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका आश्य है जीवन-जगत के सभी राग-विरागों, माया-मोह आदि लिप्साओं, आसक्तियों से मुक्ति। प्रत्येक व्यक्ति इस स्तर की कामना करता है पर वह लिप्तता से मुक्ति चाहता है, जबकि मुक्ति अलिप्तता में है।
भारतीय विचारकों ने मोक्ष को अनेक प्रकार से समझाया है। इसमें जन्म-मृत्यु युक्त जीवन में आवागमन से मुक्ति । इस दशा में जीव माँ के गर्भ में पुनः स्थित होने से ही मुक्त हो जाता है। इसी में कष्टों से छुटकारा कहाँ-जब तक जीवन है, जीवन मोह है, तो छुटकारा ‘कैसे? इसीलिए जीवन कष्टों से मुक्ति चाहता है मानव । वह संकीर्ण आत्म यानी पंचभूत तत्त्वों से घिरी आत्मा से, अन्य सुरक्षाओं से मुक्ति चाहता है।
भगवद्गीता और उपनिषदों में मोक्ष का विस्तार से परिचय मिलता है। यह भी प्राप्त करने का तरीका बताया है, लेकिन इन्हें समझने, पूरी तरह से तैयार होने और गुरु कृपा की आवश्यकता होती है इसलिए इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए इन धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ते रहना चाहिए और सोच-विचार करते रहना चाहिए। जिस व्यक्ति ने मोक्ष का महत्व समझ लिया है और इस अवस्था को प्राप्त किया है, वह ब्रह्मज्ञानी या आत्मज्ञानी होता है।
इन चारों का ही जीवन महत्वपूर्ण है। भारतीय विचारधारा, जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है, अर्थ और कर्म का तिरस्कार नहीं करती; बल्कि, यह हमें बाध्य करती है कि हम अपने जीवन में इन्हें उचित स्थान दें। ये हमें यह समझने और समझने को प्रेरित करता है कि काम और अर्थ से मिलने वाली खुशी अस्थायी है और शीघ्र ही अपना आकर्षण खो देती है। हम एक इच्छा को पूरा करने के बाद दूसरी की ओर भागते हैं और हर बार खुशी की ओर भागते हैं। मोक्ष और धर्म ही हमें आत्मिक खुशी का रास्ता दिखाते हैं।इसे प्राप्त करने के लिए हम निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं-
(1) खुशी पाने के तरीके खोजें जो हमारे अंदर ही हैं। जैसे, अपने काम को अच्छे ढंग से करना, अपने कर्तव्यों का गंभीरता से पालन करना, गरीबों की मदद करना आदि।
(2) अपनी रुचि, कौशल और रुझान जानें और उनका विकास करें। वह संगीत, कला, खेल या पठन-पाठन हो सकता है ।
(3) जीवन के बारे में विस्तृत विचार, लक्ष्य और दृष्टिकोण रखें। यह हमें जल्दी लक्ष्यों को निर्धारित करने, चुनने और निर्णय लेने में मदद करता है।
प्रश्न 3. संवेग को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन-कौन से हैं? उनका नामोल्लेख कीजिए ।
उत्तर- प्रत्येक व्यक्ति अपने भावों पर प्रतिक्रिया करता है। कुछ लोग बहुत भावुक हैं। कुछ सकारात्मक भाव बहुत महत्वपूर्ण हैं। नकारात्मक भावों को कुछ लोग महत्व देते हैं। अपने परिवेश और वातावरण पर एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया बहुत प्रभावी होती है। दृढ़ता और नियंत्रण भी व्यक्ति की प्रतिक्रिया को प्रभावित करते हैं, और कई कारक हमें सांवेगिक स्थिति में ला सकते हैं।इनमें से कुछ प्रमुख हैं-
(i) परिस्थिति में विद्यमान उद्दीपन
(ii) मानसिक विभिन्नताएं
(iii) अभिवृत्तियां
(iv) अनुभव
(v) सांवेगिक परिपक्वता ।