NIOS Class 10 Social Science Chapter 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जाग्रति

NIOS Class 10 Social Science Chapter 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जाग्रति

NIOS Class 10 Social Science Chapter 6 Solution Religious And Social Awkening In Colonial India– ऐसे छात्र जो NIOS कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान विषय की परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते है उनके लिए यहां पर एनआईओएस कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान अध्याय 6 (औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जाग्रति) के लिए सलूशन दिया गया है. यह जो NIOS Class 10 Social Science Chapter 6 Religious And Social Awkening In Colonial India दिया गया है वह आसन भाषा में दिया है . ताकि विद्यार्थी को पढने में कोई दिक्कत न आए. इसकी मदद से आप अपनी परीक्षा में अछे अंक प्राप्त कर सकते है. इसलिए आपNIOSClass 10 Social Science Chapter 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जाग्रति के प्रश्न उत्तरों को ध्यान से पढिए ,यह आपके लिए फायदेमंद होंगे.

NIOS Class 10 Social Science Solution Chapter 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जाग्रति

प्रश्न 1. 19वीं सदी के भारत में सामाजिक प्रथाओं के अस्तित्व के बारे में बताएं।

उत्तर – 19वीं शताब्दी में भारतीय समाज रूढ़िवाद एवं अंधविश्वासों के दलदल में धँसा हुआ था। भारतीय समाज में चारों ओर कुरीतियों ने सिर उठा रखा था, जिसमें आमजन ही नहीं प्रबुद्ध एवं बुद्धजीवी वर्ग भी अन्दर तक धँसा हुआ था। कुछ कुरीतियों का विवरण निम्नलिखित है-

1. सती प्रथा – सती प्रथा उस समय भारतीय समाज में बहुत बुरी थी। सती प्रथा के अनुसार, पति मरने पर पत्नी को भी जला दिया जाता था। उस समय महिलाएं इस अमानवीय बुराई से बहुत पीड़ित थीं। राजाराम मोहन राय ने पहले इस प्रथा को समाप्त करने का फैसला किया। 1829 में, तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक के सहयोग से, उन्होंने इसे भारत में वर्जित कर दिया।

2. जाति प्रथा –जातीय मान्यताओं के कारण समाज में भेदभाव चरम था। ऊँची जाति के लोगों ने नीची जातियों को कमजोर मानते थे। उन्हें अपना पानी और भोजन भी स्वीकार नहीं था। ब्राह्मण अपने आप को सर्वोच्च मानते थे। वंचित जातियों को कोई अधिकार नहीं मिले। समाज में बहुत ऊँच-नीच की भावना थी। भारतीय समाज में इस भेदभाव ने आपस में द्वेष पैदा किया।

3. पर्दा प्रथा- पर्दा प्रथा भी 19वीं शताब्दी के समाज की एक प्रमुख कुरीति थी, जिसके कारण स्त्रियों को काफी कष्ट सहना पड़ता था। उन्हें हमेशा पर्दे में रहना पड़ता था । यह प्रथ हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से व्याप्त थी ।

4. महिलाओं के साथ भेदभाव – महिलाओं को समाज में निचला दर्जा प्राप्त था। उन्हें कई अधिकारों से वंचित रखा जाता था। वे पूर्ण रूप से पुरुषों के अधीन थीं। उन्हें शिक्षा एवं उन्नति करने के अधिकार नहीं थे। सम्पत्ति में उनका कोई अधिकार नहीं होता था ।

5. अंधविश्वास एवं रूढ़िवाद – हिन्दू एवं मुस्लिम धर्मों में अनेक बुराइयों ने सिर उठा रखा था। लोग अपने धर्म को अच्छा एवं दूसरे के धर्म को बुरा बताते थे। यहां तक कि भिन्न धार्मिक कर्मकाण्ड, रूढ़िवादी प्रथाएं मूर्ति पूजा, बलि देना धार्मिक अंधविश्वास इत्यादि धर्मों में अन्दर तक व्याप्त थे । पाखण्डवाद का चारों ओर बोलबाला था और इस बुराई ने भारतीय समाज को कई हिस्सों में बाँटकर रख दिया था।

6. बहुपत्नी प्रथा – यह भी उस समय के समाज की एक बुराई थी धनी एवं अभिजात वर्ग एक से अधिक विवाह कर लेता था, जिससे स्त्रियों की स्थिति अधिक कष्टकारी हो जाती थी।

7. बाल-विवाह- लोग छोटी-छोटी लड़कियों के विवाह कर देते थे जिससे उनकी जिन्दगी बर्बाद हो जाती थी। छोटी उम्र में वे परिवार की जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ रहती थी, जिसके कारण उनका जीवन कष्टमय एवं नारकीय हो जाता था।

प्रश्न 2. आपको क्यों लगता है कि सुधारों के लिए समाज को जगाने की जरूरत थी ?
उत्तर – भारतीय समाज में लोगों में भेदभाव और असमानता के खिलाफ जागृति के प्रमुख कारण अज्ञानता और समाज में पिछड़ापन थे, जो उन्नति और विकास में बाधा के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार थे। ब्रिटिश मिशनरियों ने जब ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार किया, तब उन्होंने हमारी सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं की आलोचना की तथा उन पर अनेक सवाल उठाए। समाज में सुधार लाने की इच्छा इतनी सशक्त थी कि परंपरागत रूढ़िवादी भारतीय चुनौतियों के बावजूद इन समाज सुधारकों द्वारा समाज में वांछित बदलाव लाने हेतु अनेक आंदोलन शुरू किए गए।

प्रश्न 3. आपको ऐसा क्यों लगता है कि सामाजिक सुधार आंदोलन का धार्मिक सुधारों के बिना कोई अर्थ नहीं है?
उत्तर – स्वामी दयानंद सरस्वती और राजाराम मोहन राय जैसे प्रबुद्ध व्यक्तियों ने प्रचलित धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं की आलोचना की। उनका मानना था कि समाज पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समानता और स्वतंत्रता की अवधारणा चाहिए और यह महिलाओं के मध्य विशेष रूप से आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के प्रसार से ही संभव था। यह आंदोलन ‘सामाजिक-धार्मिक आंदोलन’ के नाम से जाना गया। इन समाज-सुधारकों ने यह महसूस किया कि धर्म में सुधार के बिना समाज में कोई भी बदलाव संभव नहीं है।

प्रश्न 4. क्या आपको लगता है कि सुधारक भारतीय समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम थे ?
उत्तर – धर्म ने अधिकांश सामाजिक रीति-रिवाजों को प्रेरित किया था, इसलिए सामाजिक सुधार के बिना कोई बदलाव नहीं होता। हमारे प्रबुद्ध सामाजिक सुधारकों को भारतीय परंपरा, दर्शन और शास्त्रों का बहुत ज्ञान था। वे पश्चिमी सिद्धांतों और लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों को भारतीय मूल्यों के साथ मेल खाने में सक्षम थे। इस ज्ञान पर उन्होंने धर्म में कठोरता तथा अंधविश्वास जैसी प्रथाओं को चुनौती दी। उन्हें धार्मिक अंधविश्वासों पर कई प्रश्न उठाए गए। ये समाज सुधारक चाहते थे कि लोग तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को स्वीकार करें। वे चाहते थे कि सभी को सामाजिक समानता और समान आदर मिले।

प्रश्न 5. सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों ने किस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया?
उत्तर- 19वीं शताब्दी में भारतीय सामाजिक-धार्मिक आंदोलन ने मध्यवर्ग को जागृत किया। इन सभी सुधारकों को लगता था कि आधुनिक विचारों और संस्कृति को भारतीय सांस्कृतिक धाराओं में जोड़कर आत्मसात किया जा सकता है। भारतीयों को आज की शिक्षा वैज्ञानिक और तर्कसंगत सोच विकसित कर सकती है। सभी सुधारकों ने महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश की और जाति व्यवस्था, खासकर अस्पृश्यता की आलोचना की। शिक्षा पर बल दिया, खासकर महिलाओं की शिक्षा पर। महिलाओं की हालत सुधारने के लिए कुछ कानूनी कदम उठाए गए हैं। उनका विरोध सती प्रथा और भ्रूण हत्या का था। इन सभी प्रयत्नों से देशव्यापी आंदोलन मजबूत हुआ ।

प्रश्न 6. जाति व्यवस्था एवं विधवा पुनर्विवाह की वकलात में इन सुधारकों की भूमिका स्पष्ट करें-
(क) राजाराम मोहन राय
(ख) ईश्वर चंद्र विद्यासागर
(ग) ज्योतिबा फुले
उत्तर- (क) राजाराम मोहन राय – 1828 में राजाराम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज ने इस दिशा में बहुत कुछ किया। इस संस्था ने सती प्रथा, जो उस समय एक भयंकर और अमानवीय बुराई के रूप में व्याप्त थी, के खिलाफ आवाज उठाई, जिससे 1829 में इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। राजाराम मोहन राय और उनकी संस्था ब्रह्म समाज ने भी महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और अन्याय का विरोध किया। वे महिलाओं की समानता का समर्थन करते थे। इसके अलावा, उन्होंने महिलाओं को शिक्षित होना अनिवार्य बताया।

(ख) ईश्वरचंद्र विद्यासागर – ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने महिलाओं के बारे में बोली। उनका कहना था कि महिलाओं को शिक्षित होना अनिवार्य है। उन्हें महिलाओं की पढ़ाई के लिए कई संस्थान बनाए गए। उन्होंने बाल-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ भी आवाज उठायी। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कहा कि छोटी उम्र की लड़कियों की शिक्षा अनिवार्य है। उनका कहना है कि अशिक्षा ही सभी समस्याओं का मूल है। ईश्वरचन्द्र ने 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम का उद्देश्य था कि सभी विधवा विवाहों को समाज में वैध करार दिया जाएगा और इसे प्रोत्साहित किया जाएगा। उस समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए उन्होंने ऐसे कई विवाहों को करवाया। उसने अपने पुत्र को भी विधवा से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। वास्तव में, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

(ग) ज्योतिबा फुले – ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र में किसानों और निम्न जाति को समान अधिकार दिलाने के लिए कार्य किया। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षित किया तथा बाद में पूना में लड़कियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल खोला। आज भी ज्योतिबा फुले को विधवाओं के विवाह के लिए किए प्रयासों के लिए याद किया जाता है। ज्योतिबा फुले ने 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ का गठन किया, जो इस समाज की जातियों को शोषण और अत्याचार से बचाता है।

प्रश्न 7. निम्नलिखित सुधारकों के बीच सामान्य लक्षण को पहचानें-
(क) थियोसोफिकल सोसायटी और रामकृष्ण मिशन
(ख) अकाली आंदोलन और आर्य समाज

उत्तर- (क) थियोसोफिकल सोसायटी – 1898 में, एनी बेसेंट भारत पहुंचीं और थियोसोफिकल सोसायटी की सदस्या थीं। एनी बेसेंट ने भारतीय भाषा को बढ़ावा दिया और भारतीय विरासत और संस्कृति पर गर्व की भावना को दर्शाने वाले साहित्यिक लेखों को लिखा। इससे भारतीयों में राजनीतिक जागरूकता और आत्मविश्वास बढ़ा। उनका आधुनिक भारत में योगदान और विश्वबंधुत्व का प्रचार था। 1907 में, एनी बेसेंट ने बनारस में थियोसोफिकल सिद्धांतों पर आधारित सेंट्रल हिन्दू कॉलेज खोला। इस कॉलेज में छात्रों को धार्मिक ग्रंथों के अलावा समकालीन विज्ञान भी पढ़ाया गया।

रामकृष्ण मिशन – 9 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था । नरेन्द्रनाथ दत्त उनका मूल नाम था। उनका आध्यात्मिक गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस था। हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक संदेशों को यूरोप और अमेरिका में प्रचारित करने का प्रयास स्वामी विवेकानन्द ने किया। 1893 में शिकागो और 1900 में पेरिस में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलनों में स्वामी विवेकानन्द ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। इस सम्मेलन में, उन्होंने भारत की महान संस्कृति और हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक महत्व को लोगों के सामने रखा। विवेकानंद ने हिन्दू धर्म के आध्यायात्मक रूप को समझाने के लिए दुनिया भर में धर्म प्रचारक केंद्रों की स्थापना की, जिनमें से अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को वेदान्त समाज का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। विवेकानंद ने इस संस्था से भारतीय विचारों और हिंदू संस्कृति को अमेरिका में फैलाया। 5 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद ने अपने आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। वेदान्त दर्शन इस मिशन का आधार है। उन्होंने बेलूर मठ भी स्थापित किया, जो संन्यासियों को धर्म प्रचार करने और दूसरे मठों को संगठित करने के लिए प्रशिक्षित करता है। स्वामी विवेकानंद ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया, साथ ही हिन्दू धर्म के नियमों और विश्वासों का पालन किया। स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म और संस्कृति को सर्वोच्च मानते हुए काम किया। साथ ही, उन्होंने धार्मिक संकीर्णता, अंधविश्वास, हिन्दुओं के कर्मकाण्ड और जातीय भेदभाव की जमकर आलोचना भी की। धर्म की सरलता और सरलता पर उन्होंने बल दिया।

(ख) अकाली आंदोलन – सिखों के मध्य धार्मिक सुधार आंदोलन की शुरुआत 1870 में अमृतसर और लाहौर में ‘सिंह सभा’ से हुई। 1892 में खालसा कॉलेज की स्थापना की गई थी, जिसका उद्देश्य शिक्षण और पंजाबी साहित्य को प्रोत्साहित करना था। 1920 में अकाली आंदोलनों ने पंजाब में गुरुद्वारों या सिख धार्मिक स्थलों की व्यवस्था को बेहतर बनाया। 1921 में महंतों के खिलाफ व्यापक सत्याग्रह ने सरकार को 1925 में एक नया गुरुद्वारा कानून बनाने को मजबूर कर दिया। इस कानून की मदद से भ्रष्ट महंतों को उनके प्रभुत्व और नियंत्रण से मुक्त कर सकेंगे। आर्य समाज: स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों को अपना माध्यम बनाकर देशवासियों को नवजागरण का संदेश दिया। जब ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें मजबूत हो गईं और ईसाई धर्म और संस्कृति भारत पर हावी हो गईं, तो स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दू पुनरुत्थान के प्रमुख अग्रणी प्रवक्ता बन गए। पश्चिमी चमक में खोए भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता बताकर देशप्रेम जगाया।
उन्होंने देशवासियों के मन में यह भावना जगाने की कोशिश की कि आर्य लोग ईश्वर की प्यारी सन्तान हैं, जिनकी वाणी वेद है, और भारत उनका घर है। उन्हें लगता था कि हिन्दुओं, देशवासियों और भारत का कल्याण सिर्फ विदेशी तत्त्वों को मुँहतोड़ जवाब देने, हिन्दू धर्म और अपनी संस्कृति की महानता को स्थापित करने और देशवासियों में स्वाभिमान जाग्रत कर उठ खड़े होने की प्रबल इच्छा को जगाने में है। वेदों के युग में लौट चलो, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि केवल वैदिक धर्म ही सार्वदेशिक और सत्य था। वे एक कल्पनाशील विचारक के साथ-साथ एक कर्मवादी भी थे, और उनका वेदवाद देश की शक्ति और अभिव्यक्ति को बढ़ाना था। उन्हें पूरा विश्वास था कि भारतीय राजनीति में उनकी मानसिक परतन्त्रता पहले से ही थी और आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परतन्त्रता से मुक्ति का रास्ता साफ नहीं होगा जब तक मानसिक परतन्त्रता से छुटकारा नहीं मिलता।

प्रश्न 8. 19वीं सदी में भारत में महिलाओं की शिक्षा के विकास में कौन-सी बाधाएं आई?
उत्तर – भारत में महिलाओं की शिक्षा के विकास में अनेक समस्याएं थीं-
1. स्त्रियों की सामाजिक स्थिति – भारत में अनेक शताब्दियों से स्त्रियों की सामाजिक स्थिति दयनीय रही है । वे सदैव ही शोषण तथा उत्पीड़न का शिकार रही हैं। पुरुष प्रधान समाज में वे सदैव ही हीन समझी गयीं । इस सम्बन्ध में कुलीन वर्ग की स्त्रियों की स्थिति और भी खराब थी। उन्हें सदैव घर की चारदीवारी में ही रहना पड़ता था ।

2. स्त्रियों को अभिव्यक्ति तथा स्वतंत्र मानव का अधिकार नहीं था – स्त्रियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी । उसकी एकमात्र भूमिका गृहिणी की थी तथा उसका अपना कोई पृथक व्यक्तित्व नहीं था । स्त्रियों को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था, जबकि पुरुष कई विवाह कर सकता था । बाल-विवाह तथा सती-प्रथा के कारण उनका जीवन नारकीय हो गया था ।

3. आर्थिक दृष्टि से पुरुषों पर निर्भरता – स्त्रियाँ न केवल सामाजिक दृष्टि से, वरन आर्थिक दृष्टि से भी पुरुषों पर निर्भर थीं । हिन्दुओं में स्त्री को उत्तराधिकार में संपत्ति लेने का अधिकार नहीं था । मुस्लिम समुदाय में स्त्रियों को संपत्ति में से पुरुषों का आधा भाग दिया जाता था ।

प्रश्न 9. मुसलमानों में अंग्रेजी की शिक्षा किसने शुरू की? इस क्षेत्र में उनके योगदान और भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर – 19वीं शताब्दी में विभिन्न धार्मिक सुधार आन्दोलन के अन्तर्गत कई मुस्लिम धार्मिक सुधार आन्दोलन भी अस्तित्व में आये। धर्म में सुधार के लिए अनेक मुस्लिम विद्वानों ने प्रयास किए। इसके अतिरिक्त उन्होंने मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों एवं उनके कल्याण के लिए भी प्रयास किए। महत्त्वपूर्ण मुस्लिम सुधारवादी आन्दोलनों में सबसे प्रमुख आन्दोलन था अलीगढ़ आन्दोलन, जिसकी स्थापना सर सैयद अहमद खाँ ने की थी। सर सैयद खाँ मुस्लिम समाज के प्रमुख सुधारकों में से एक थे। स्वयं शिक्षित एवं प्रगतिशील विचारों के होने के वजह से तत्कालीन मुस्लिम समाज में व्याप्त संकीर्णता को देखकर वे काफी निराश थे। वे मुसलमानों की दशा सुधारना चाहते थे, जिससे मुस्लिम समाज भी विकास में भागीदार बन सके। इसके लिए उन्होंने मुस्लिमों के लिए आधुनिक शिक्षा पद्धति को अनिवार्य माना। सर सैयद अहमद खान आधुनिक शिक्षा के जरिये रूढ़िवाद के जाल में फँसे मुस्लिम समाज की शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक उन्नति और आधुनिक परिवेश में लाने के लिए कार्य किए। उन्होंने एक सोसायटी की स्थापना, की जो अंग्रेजी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद करती थी। इसके अतिरिक्त 1875 में उन्होंने अलीगढ़ में “मुहम्मद एंग्लो- ओरियण्टल कॉलेज” की स्थापना की, जो आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन ने जिन महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उठाया, वे थे- मुस्लिमों के लिए आधुनिक शिक्षा, स्त्रियों के लिए शिक्षा, कर्मकाण्डों का विरोध, पश्चिमी शिक्षा का समर्थन इत्यादि ।

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